Tuesday, July 19, 2016

अरुण प्रभा : हिंदी-शोध की मानक और स्तरीय पत्रिका बनाने का संकल्प, इच्छाशक्ति और दृढ़ता


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आगामी अंक का प्रस्तावित कलेवर: राजीव रंजन प्रसाद
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हम अतिरिक्त कुछ नहीं कहना चाहते, आप यदि शोध तथा शोध-पत्र की गुणवत्ता और स्तरीयता को अकादमिक सेहत के लिए प्राणवायु सरीखा मानते हैं, तो निम्न पता आप ही के लिए है :

सम्पादक
अरुण प्रभा, हिंदी विभाग
राजीव गाँधी विश्वविद्यालय
रोनो हिल्स, दोइमुख
अरुणाचल प्रदेश-791 112
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Sunday, July 17, 2016

मैं हिंदू क्यों हूँ!


देव और दीप के हाथों बना यह चित्रपट
प्रिय देव-दीप,


मैं हिंदू हूँ और जिस आवेदन से मुझे नौकरी मिली है; उसमें मैंने अपना धर्म हिंदू ही लिखा है। मैं हिंदू इसलिए हूँ कि जिस परिवार में मेरा जन्म हुआ है, वह हिंदू परिवार है। यह ठीक उसी तरह है जैसे मैं अपने को पूरे हकदारी के साथ भारतीय बताता हूँ। यह भारतीय होना भी सिर्फ इस कारण है कि मेरा हिंदू परिवार जिस जगह पर रहता है उस जनतांत्रिक राष्ट्र का नाम भारत है और उसके पूरे रहवासी स्वतः भारतीय मान लिए जाते हैं। इसी तरह मैं पिछड़े वर्ग से हूँ और मेरा जाति कानू है। इसकी वजह यह मालूम है कि मैं एक जातिवादी समाज में पैदा हुआ हूँ जिसे मनुस्मृतिबोधक शास्त्रीयता प्रमाणित करती है। वह यह सत्यापित करती है कि हर व्यक्ति जाति में पैदा होता है, धर्म में खड़ा होता है और वर्ग में चलता है। व्यक्तिगत तौर पर किसी और पहचान के रूप में एक लैंगिक आधार महत्त्वपूर्ण है जिससे किसी बच्चे का लड़का या लड़की होने की शिनाख़्त कुदरती तौर पर होता है। मैं पुरुष हूँ और यह मेरे लैंगिक जननांग को देखकर प्रमाणित किया जा सकता है। यही एक ऐसा मूल आधार है जिसे कोई भी प्रकृतितः जान सकता है। शेष के लिए कागजों, दस्तावेजों, साक्ष्यों, सबूतों, सूत्रों आदि की आवश्यकता पड़ती है। जहाँ अपनी पहचान साबित करने के लिए दूसरों का सहारा लेना पड़ता है, सारी गड़बड़ियाँ, मुसीबतें, तकलीफें आदि वहीं से शुरू होती है। 

देव-दीप, जो कुदरती नहीं है उसके लिए कागजी विधान है, सामाजिक हस्तक्षेप है। यह विधान और हस्तक्षेप बरसों बाद अपनेआप शास्त्रीयता का रूप धारण कर लेते हैं। फिर मनुष्य गौण हो जाता है और उसके बदले कृत्रिम शब्दावलियाँ, दस्तूर और प्रथाएँ अपना पाँव पसार लेती हैं, मानवीय ज़िदगियों के इर्द-गिर्द गणेश-परिक्रमा करने लगती हैं। भारत में यह इतनी अधिक मात्रा में फैली हुई हैं कि मनुष्य अपने हित-लाभ, सुख-दुख, शान्ति-सुकून, उल्लास-उत्साह, साहस-संकल्प आदि का महत्त्व भूल जाता है जबकि उसे गैर-जरूरी तथा गैर-सामाजिक चीजों में बेवजह (कई बार खुद और कई बार न चाहते हुए भी) नाध दिया जाता है। ऊपरी समस्त चीजें जो मानवीय मूलप्रवृत्ति से इतर हैं, उन्हें कहा तो कर्मकाण्ड जाता है; लेकिन इससे हम अपना नाभिनाल सम्बन्ध जोड़े रखते हैं। धरातल की सचाई, ज़मीन के अनुभव, भोगा हुआ यथार्थ, आँखों में बसे दृश्यबिंब, कानों में पड़े आवाज, छू-सहलाकर महसूसी गई संवेदना अचानक झुठला दी जाती है। इस जगह मनुष्य अपने होने का उत्सव नहीं मनाता है बल्कि अपने द्वारा गढ़ी हुई चीज अथवा अपने ऊपर थोपे हुए का गुमान अधिक करने लग जाता है। कई बार ऐसी चीजें हमें हीन भी बनाती हैं, हमें नगण्य साबित करती हैं।

देव-दीप, ईश्वर को हमने बड़े पवित्र भाव से बनाया। बाद में दूसरों ने ईश्वरवाद का मुहावरा गढ़ दिया। अब ईश्वर के प्रति हमारी निष्ठा नहीं बची; लेकिन ईश्वरीय मुहावरे खुल्लमखुला कहर बरपा रहे हैं। बच्चों यह हमेशा याद रखने योग्य है कि धर्म आतंकित नहीं करता, वह डराता नहीं है; लेकिन आज यह साँचा उलट गया है। मानवीय सोच-विचार वाले लोग बुद्द्धू हो गए हैं, उनके तजरबे, तहजीब और सलाहियत को हम सीधे-सीधे झुठला रहे हैं। लिहाजा, इस समय धर्म के नाम पर बंदूके लहराई जा रही हैं, खून-खराबे हो रहे हैं, हिंसा-प्रतिहिंसा का खेल खेला जा रहा है आदि-आदि। आजकल वैज्ञानिक तर्क दिए जा रहे हैं कि ईश्वर को मानने से सबकुछ होता, तो यह गरीबी दूर क्यों नहीं हो रही? ईश्वर ही पूरी दुनिया का नीति-नियंता है, तो फिर वह युद्ध खड़ा करने वाले, आतंक बरपाने वाले, निरीह लोगों की जान लेने वाले सभी अमानुषिक और बर्बर प्रवृत्ति के लोगों को सजा क्यों नहीं दे रहा है? ईश्वर यदि संरक्षक है, तो मानवीय संसार में इतनी अराजकता, व्याभिचार और भ्रष्टाचार क्यों है? ईश्वर यदि मनुष्य का सर्वागिंण विकास चाहता है, तो उसकी इस मंशा में बाधा उत्पन्न करने वालों को वह सजा क्यों नहीं दे पा रहा है? 

देव-दीप, ये सवाल मौजूं हैं; क्या ईश्वरीय शक्तियों को किसी ने सोख लिया है। वैज्ञानिक शब्दावली में, ‘ब्लैक होल’ की तरह। क्या उसे अपहरण कर किसी ने गोली मार दी है जैसे हमारे इर्द-गिर्द हत्याएँ बदस्तूर जारी है। मुझे समझ नहीं आ रहा है, यदि ईश्वर सत्ता और शक्ति से हीन है, तो फिर वह परम ब्रह्म कैसे है; वह कण-कण में व्याप्त कहाँ है; ‘यत् पिण्डे तत् ब्रह्माण्डे’ का आसरा क्यों है? भगवान के नाम पर हम जिन नमूनों/पुतलों को ईश्वर की संज्ञा देते हैं वे बाढ़, सूखा, अकाल, भूकंप, तूफान, जलजला, ज्वालामुखी, भूस्खलन, बादल फटने, ग्लेशियर पिघलने आदि जैसे प्राकृतिक त्रासदियों से बचाने क्यों नहीं आते? क्या उनका मीडिया नेटवर्क हमसे भी गया-गुजरा है। कहीं ऐसा तो नहीं जो कुछ नहीं जानते या फिर जिनका सामथ्र्य चूक गया है; उन्हें ही ईश्वर ने पृथ्वी की चैकीदारी पर तैनात कर दिया है? क्या ईश्वरीय महातम्य तक में भ्रष्टाचार घुस गया है, तो फिर उस सत्ता को अपने से अधिक शक्तिशाली एवं प्रभावशाली मानने को हम अभिशप्त क्यों है,? 

प्रश्न यह भी कि जब धर्म और धार्मिक आचरण मूल्यहीन, जड़ और शून्य हो गए हैं, तो फिर हम धर्म और धार्मिक विधानों को ढो क्यों रहे हैं? क्यों हम हिंदू हैं, काहे का मुस्लिम, सिख, ईसाई, जैन, बौद्ध, शैव, वैष्णव, मुल्ला, पंडित, पीर, पैगम्बर हैं। जब ईश्वर का भूत और भविष्य क्या वर्तमान तक पर नियंत्रण नहीं हैं, तो ऐसी धार्मिक आख्यानों और मिथकीय आचरणों का चोला पहनकर रहने से क्या फायदा? यदि नारियल फोड़ने से, लड्डू चढ़ाने से, माथा टेकने से, व्रत रखने से यानी बहुविध ईश्वरीय समर्पण के बाद भी भला नहीं होता,उल्टे हमें झूठे मुकदमेबाजी में फँसाया जाता है, हमारी छोटी-सी मासूम बच्ची के साथ दुष्कर्म जैसे जघन्य अपराध घटित होते हैं, तो फिर आखिर धर्म है क्या चीज और किसके हित-लाभ, कल्याण और रक्षा के निमित्त-निहितार्थ है? 

इसी तरह हमने ईश्वर के समानांतर जनप्रतिनिधियों को खड़ा किया है। वे हमारे माई-बाप हैं, नीति-नियंता हैं। इनकी जाति, गोत्र, कुल चाहे जो हो वह हैं अंततः अभिजन, अमीर, सामंत अथवा धनिक वर्ग आदि। उनके पास खाने को मन भर है, खरचने को अपार दौलत है, रहने को बंगला या बहुमंजिली इमारत है; वह हमारे भूखे-नंगे-बीमार होने पर क्यों चिलाएँगे। सबसे बड़ी बात यह सोचने की है कि जो अमीरजादे हमारी बोली-वाणी में घुले-मिले-पगे नहीं हैं; जिन्होंने हमारी तरह बेपनाह दुख-तकलीफ भोगा नहीं है, सचाई से जो अवगत नहीं है, असह्य पीड़ा से जो परिचित नहीं है; वह संसद अथवा विधानसभा में हमारे लिए वास्तविक लड़ाई, संघर्ष, संग्राम, प्रतिरोध क्योंकर करेंगे? उन्हें तो हमारी हर बात चिकचिक लगेगी, फ़िजूल चिल्लाहट। वे बेशर्मी से टाल जाएँगे। बेदर्दी से हमारे कहे को अनसुना कर देंगे। आज जनमाध्यम का दौर है। देश का सभ्य नागरिक पूरी असभ्यता के साथ बहुतेरे कुकर्म कर रहा है और उसका किया-धरा टेलीविज़न स्क्रीन, अख़बारी स्याह में छपा हुआ सामने है। किन्तु, युवाओं की औचक भीड़ और दिल्ली की कैंडिल जलाने वाली जवान हाथें, इंकलाब करने वाली हुजूम, ग़लत न सहन करने वाला ‘सिविल सोसायटी’ आदि सब चुप, खामोंश, किंकर्तव्यविमूढ़, अकर्मण्य हो गए हैं। घटनाएँ रोज-ब-रोज नृशंस होती जा रही है, अन्याय अराजक तरीके से चहुँओर फैल रहा है....पर बोलती बंद है; सड़क से संसद तक जुबान बंद है। व्हाट्स अप, फेसबुक, ट्वीटर आदि की बत्ती गुल है। नतीजतन, अन्धेरा सर चढ़ नाच रहा है, अन्धेरगर्दी, गुंडागर्दी, आवारागर्दी आदि बदस्तूर जारी है। सचमुच, इस समय सचाई को कूच-थूकच दिया गया है। वह कवि निराला की ‘मार खाई, रोई नहीं’ की स्थिति में है। हम अपने को भारतीय कहने पर शर्मसार महसूस कर रहे हैं। हिन्दुस्तानी कहते हुए भीतर से कलप रहे हैं। लेकिन धरातल या ज़मीन पर असरदार तरीके से कुछ नहीं कर रहे हैं।

देव-दीप, इतनी निराशा, हताशा, तनाव, अवसाद, कुंठा आदि हममें गुब्बार की तरह बढ़ गया है। हम अपनी कमियों की जगह, ग़लतियाँ सुधारने की जगह अपना दोष दूसरों पर मढ़ रहे हैं; स्वयं सही होने की सफाई पेश कर रहे हैं। लेकिन हम ग़लत हैं, पूरी तरह ग़लत हैं। यह तुमदोनों ने कल सिद्ध कर दिखाया। तुम्हारे कागज पर उकेरे हुए दृश्यचित्र ने मुझे बेचैन-व्याकुल कर दिया। हम तुम्हारी संभावनाओं पर अपनी भावना थोपने का कुसूरवार हैं। तुमदोनों ने जो चित्र कागज पर उकेरे, वह हमें दृष्टि देती हैं; उठकर आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करती है। मेरी समझ से असल मतनेता (ओपीनियन लीडर), जन-प्रतिनिध या कि ईश्वर तुमदोनों ही हो...और हम तुम्हारे आगे स्वयं को कुसूरवार मानते हैं। दुनिया ख़राब है, यह कहकर तुम्हें समाज से काट देने वाले हम कौंन हैं, धर्म ख़राब है यह कहकर तुमको मंदिर, मस्जिद, गिरजाघर, गुरुद्वारा, मठ, स्तूप आदि में आस्था नहीं रखने का सलाह देने वाले कौंन हैं; संविधान की मान्यताएँ बेअसर हैं इसलिए उनका अनुपालन न करने की सीख देने वाले कौंन हैं.....! हर वह बात, चीज, मुद्दे, व्यक्ति, समाज, धर्म, प्रथा आदि जिन्हें तुम खुद देख-सुन-महसूस सकते हो; उस बारे में हम अपना विचार-दृष्टि तुम पर थोपें यह उचित नहीं है।

देव-दीप, तुम अपनी तरह से दुनिया देखो, उसकी कल्पना करो, स्वपनिल उड़ान भरो, जियो, रंग भरो.....हम तुम्हारे निजी और व्यक्तिगत कैनवास में घुसपैठ करने का कोई हक या अधिकार नहीं रखते हैं। तुमदोनों का बनाया चित्रांकन मैं यहाँ साझा कर रहा हूँ। सदैव खुश रहो और अपनी खुद की बनायी दुनिया में मगन रहो।

तुम्हारा पिता
राजीव 

Tuesday, July 12, 2016

कुछ नहीं !


.......

कल रात एक अजीब सपना देखा।

सोए में किसी ने पूछा-‘कितना जानते हो?’
झटके से मुँह से निकला-‘कुछ नहीं !’

वह मेरे बाद वाले से पूछने लगे, फिर उसके बाद वाले से, फिर उसके भी बाद वाले से।
सब कुछ न कुछ कह रहे थे। बहुत कुछ कह रहे थे।

मैं रोने लगा, क्योंकि मुझे भी अपने बारे में बहुत कुछ कहना था। इतने सालों से कितना पढ़ा, कितना लिखा...और सबसे अधिक कि मैं क्या नहीं लिख सकता, किस बारे में नहीं लिख सकता, कितना नहीं लिख सकता आदि-आदि ढेरों बातें बतानी थीं।

लेकिन मेरा समय बीत गया और मैं अवसर गँवा चुका था।

सुबह उठने पर मेहरारू ने बच्चों को स्कूल जाने के लिए तैयार करने को कहा और वह रसोई में नाश्ता तैयार करने लगी।

सब सामान्य था, लेकिन मेरे भीतर उस प्रश्नकर्ता को सही जवाब नहीं दे पाने की चिंता खाए जा रही थी।
तभी बड़े वाले बच्चे ने कहा-‘आप अंग्रेजी जानते हैं....मेरा होमवर्क करा दीजिए,’

मेरे मुँह से निकला-‘कुछ नहीं,’

और दोनों बच्चे रोने लगे। रसोई में घुसी उसकी मम्मी भी रोने लगी।
मैं भौचक्क। अचानक यह सब नौटंकी क्यों।

बच्चे ने एक कागज मुझे थमा दिया, मेरा बच्चा अंग्रेजी माध्यम में उत्तर लिखने में अनुत्तीर्ण था और उसे स्कूल से चेतावनी मिली थी।’

मैंने मेहरारू से कहा-‘पर तुम क्यों बच्चों-सी रोने लगी?’

उसने कहा-‘कल रात मैंने बच्चों के सो जाने पर यही सवाल पूछी और आपने यही उत्तर दिया था’
‘.....तो’

‘मैंने आपकी सारी हिंदी लिखी जला दी। अब आप अंग्रेजी सीखिए....’

कुछ भी नहीं बचा था। पत्र-पत्रिकाएँ-पुस्तकें-कम्पयूटर सब स्वाहा।

मैं सोच रहा था, क्या अंग्रेजी नहीं जानने का परिणाम इतना खतरनाक हो सकता है।

अचानक हम दोनों हँसने लगे। बच्चे भी। पूरा माहौल खुशनुमा हो गया। घर में प्रसन्नता खिल गई।
...................

Monday, July 11, 2016

स्मरणीय


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''मैंने पत्रकारिता का लंबा और टेढ़ा रास्ता चुना। सीधा रास्ता यह है कि अपने विचारों को धड़ाधड़ लिखकर पत्रकारिता में अपनी जगह और पहचान बना लें।लेकिन पता नहीं किन कारणों से मैंने यह रास्ता नहीं चुना।जो रास्ता मैंने चुना,वह जरा कठिन है। यह बात मैं कोई शहीदी मुद्रा या प्रशंसा पाने के उद्देश्य से नहीं कह रहा हूं। मुझे लगा कि मेरे लिए यही रास्ता ठीक है। पाठक तक एक व्यक्ति की बात पहुंचाने की बजाय मैंने सोचा कि हम ऐसा साधन विकसित करें जिससे बात संस्थागत रूप में पाठक तक पहुंचे। मैं रहूं या न रहूं, व्यक्ति रहे या न रहे,लेकिन वह बात लोगों तक पहुंचती रहे। इसमें मेरे लिए यह महत्त्वपूर्ण नहीं था कि मैं क्या लिख रहा हूं बल्कि मेरे लिए यह महत्त्वपूर्ण था कि और लोग क्या लिख रहे हैं। मेरे लिए महत्त्वपूर्ण बात यह थी कि हम किस तरह की पत्रिका निकाल रहे हैं या हमने किस तरह की टीम बनाई है। पत्रकारिता के अपने शुरुआती दिनों में मैं खूब लिखता था। पर जैसे-जैसे समझ बढ़ी, मुझे लिखने से डर लगने लगा कि मैं यह क्या कर रहा हूं।'' - एसपी यानी सुरेन्द्र प्रतप सिंह; कालजयी पत्रकार संपादक
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Friday, July 1, 2016

कमलेश्वर: लेखकीय तमीज़ का बेहतरीन सूत्रधार

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राजीव रंजन प्रसाद
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27 जनवरी, 2017 को ‘इस बार’ में प्रकाशित किया जाने वाला एक शोधपरक एवं गंभीर विश्लेषणात्मक आलेख।

तब तक के लिए सबा खैर!


हँसों, हँसो, जल्दी हँसो!

--- (मैं एक लिक्खाड़ आदमी हूँ, मेरी बात में आने से पहले अपनी विवेक-बुद्धि का प्रयोग अवश्य कर लें!-राजीव) एक अध्यापक हूँ। श्रम शब्द पर वि...