Wednesday, July 30, 2014

उपभोक्ता-मन और विज्ञापन बाज़ार की उत्तेजक दुनिया

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विज्ञापन को बाज़ार में उत्पाद-प्रक्षेपण का सशक्त साधन माना जा चुका है। इसका मुख्य लक्ष्य उपभोक्ता की प्रतिष्ठा और जीवन-स्तर में अभिवृद्धि करना है। भारतीय संदर्भों में विज्ञापन सामाजिक-सांस्कृतिक वर्चस्व का महत्त्वपूर्ण कारक है। वर्तमान में विज्ञापन और पूँजी दोनों एक दूसरे के पूरक अथवा पर्याय हो चुके हैं। बगैर विज्ञापन के आधुनिक पूँजीवाद का विस्तार या उसके आधिपत्य की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। आज विज्ञापन ही तय करने लगे हैं कि कोई विचार, सेवा या उत्पाद बाज़ार के हिसाब से बिक्री योग्य है भी या नहीं। पूँजीवाद पोषित इस नवसाम्राज्यवादी विश्व में विज्ञापन का उत्तरोत्तर बढ़ता कारोबार सन् 2020 तक 2 ट्रिलियन डाॅलर हो जाने की उम्मीद है।1 सिर्फ भारत में विज्ञापन का कुल अनुमानित बाज़ार 8000 करोड़ रुपए से ज्यादा है। दो मत नहीं है कि वैश्विक अर्थव्यवस्था को शीर्षाेन्मुखी करने में ‘विज्ञापन युक्ति’ अनंत संभावनाओं से भरा-पूरा क्षेत्र है। ‘एड गुरु’ के नाम से मशहूर प्रहलाद कक्कड़ की मानें तो “जनसंचार माध्यमों का इस्तेमाल करके अपने उत्पाद की पहुंच लोगों तक बनाए रखने के उद्देश्य के मद्देनजर कंपनियों का विज्ञापन बजट बहुत महत्वपूर्ण होता है। क्योंकि कॉर्पोरेट जगत विज्ञापन को खर्च की बजाए निवेश मानता है।”2 डाॅ डरबन के शब्दों में इसे युक्ति कहना ज्यादा श्रेयस्कर होगा क्योंकि ‘‘इसके अन्तर्गत वे सब क्रियाएँ आ जाती हैं जिनके अनुसार दृश्यमान अथवा मौखिक सन्देश जनता को सूचना देने के उद्देश्य से तथा उन्हें या तो किसी वस्तु को क्रय करने के लिए अथवा पूर्व-निश्चित विचारों, संस्थाओं अथवा व्यक्तियों के प्रति झुक जाने के उद्देश्य से संशोधित किए जाते हैं।’’3
 
विज्ञापन अपनी स्वाभाविकता में ‘Larger than life’ होता है; कुछ निर्धारित मानदंड हैं, जैसे कि उसका प्रमुख लक्ष्य किसी सेवा या उत्पाद के विषय में परिचय कराना है। अगर कोई विज्ञापन अस्पष्ट है, तो वह अपने उत्पाद का सही परिचय नहीं करा पाएगा। विज्ञापन हर वर्ग-समूह को संप्रेषित करने योग्य होना चाहिए। किसी भी किस्म की पेचीदगी या उलझाव पाठक के मन-चित्त पर उल्टा प्रभाव डाल सकती है। उपयुक्त बचाव यही है कि विज्ञापन सही, सटीक, आकर्षक एवं विषय केन्द्रित हो। विज्ञापन के लिए चार चीजों की अनिवार्यता होती है : 

1) विक्रय की वस्तु 
2) विज्ञापन का माध्यम 
3) संभावित क्रेता 
4) उस क्रेता को आकर्षित-उत्प्रेरित करने का लक्ष्य।
 
इन तत्त्वों का सूक्ष्म विश्लेषण करने पर जो तथ्य सामने आते हैं; वो यह कि विज्ञापन में गहरी मनोवैज्ञानिकता अन्तर्निहित होती है। मनुष्य की विभिन्न प्रकार की वृत्तियों को विज्ञापन के माध्यम से किसी निश्चित दिशा में उद्बुद्ध, उत्तेजित और उत्प्रेरित किया जाता है। मनुष्य की जिज्ञासा तथा उत्सुकता को जाग्रत तथा शमित करने की दिशा में विज्ञापन के कथ्य को सक्रिय किया जाता है। मनुष्य की सुरक्षा-वृत्ति, सुख-सुविधा-वृत्ति, खाद्य-वस्त्रादि के प्रति लोभ-मोह की वृत्ति, साहसिकता-वृत्ति, संचय-वृत्ति, खेल-वृत्ति आदि का मनोवैज्ञानिक स्तर पर विज्ञापन अच्छी तरह दोहन करते हैं।  विज्ञापन उपभोक्ता-मन के अंतस पर किस प्रकार का प्रभाव डालते हैं, इसकी पड़ताल करते हुए डाॅ0 सुवास कुमार आगे कहते हैं-‘‘विज्ञापन का सम्बन्ध विशेष रूप से मनुष्य के चक्षुन्द्रिय और कर्णेन्द्रिय से होता है। शब्दों(लिखित और ध्वनित) तथा छवियों(चित्रों श्वेत-श्याम अथवा रंगीन) की विज्ञापन में सर्वप्रमुख भूमिका होती है। यहाँ भाषा और विज्ञापन का आपस में द्विविध सम्बन्ध होता है। पहला, भाषा की उच्चारणगत, प्रतीकात्मक, संरचनागत विशेषताओं से विज्ञापन प्रभावित होते हैं। यानी उनका प्रभावकारी उपयोग करते हैं। दूसरा, विज्ञापनों के द्वारा प्रयुक्त भाषा-रूपों में कभी-कभी तीव्र मौलिकता दिखाई देती है जिनसे भाषा भी अन्तःबह्îि दोनो रूपों में प्रभावित होती है।’’4
 
आज तकनीक और प्रौद्योगिकी के उन्नत प्रभाव ने हर व्यक्ति को विज्ञापनों की इंद्रजालिक दुनिया में प्रवेश होने के लिए बाध्य कर दिया है। जनमाध्यमों के नानाविध रूपों में फैलाव जिसे आजकल तकनीकी भाषा में अभिसरण(Convergence)कहा जा रहा है, की वजह से आमजन के मानस पर विज्ञापन का गहरा प्रभाव पड़ा है। औद्योगिक उत्पादों को बाज़ार-रणनीति के बल पर आक्रामक विज्ञापनों के माध्यम से विकासशील देशों में पाटा जा रहा है। इस तरह से विश्व की सांस्कृतिक विविधता नष्ट हो रही है। उनकी सृजनशीलता का ह्रास हो रहा है और पश्चिमोन्मुख बहुराष्ट्रीय संस्कृति अपना आधिपत्य कायम कर रही है। इस निरंतर और तेज परिवर्तन से बहुराष्ट्रीय सत्तातंत्र का विश्व के सांस्कृतिक बाज़ार पर नियंत्रण की प्रक्रिया भी उतनी ही तेज होती जा रही है।
ख्यातनाम पत्रकार संजय द्विवेदी की दृष्टि में ‘‘बाजार की भाषा, उसके मुहावरे, उसकी शैली और शिल्प सब कुछ बदल गए हैं। यह भाषा आज की पीढ़ी समझती है और काफी कुछ उस पर चलने की कोशिश भी करती है। भारतीय जनमानस में फैले लोकप्रिय प्रतीकों, मिथकों को लेकर नए-नए प्रयोग किए जा रहे हैं। ये प्रयोग विज्ञापन और मनोरंजन दोनों दुनियाओं में देखे जा रहे हैं। भारतीय बाजार इतने संगठित रूप में और इतने सुगठित तरीके से कभी दिलोदिमाग पर नहीं छाया था, लेकिन उसकी छाया आज इतनी लंबी हो गई है कि उसके बिना कुछ संभव नहीं दिखता। भारतीय बाजार अब सिर्फ शहरों और कस्बों तक केंद्रित नहीं रहे। वे अब गाँव में नई संभावनाएं तलाश रहे हैं। इन चीजों की पहुँच ने कहीं न कहीं सामूहिकता की भावना को खंडित किया है। भारतीय बाजार की यह ताकत हाल में अपने पूरे विद्रूपता के साथ प्रभावी हुई है।’’5
 
अतएव, समाज में बाज़ारवाद की वर्चस्वशाली संस्कृति तेजी से विकसित हुई है। लोगों को उपभोक्ता बनाने की होड़ मची है। विज्ञापनकत्र्ताओं के निशाने पर हैं-मध्यवर्ग, किशोर-किशोरियाँ, कामकाजी महिलाएँ, पुरुष तथा बच्चे। मीडियाविद् सुभाष धूलिया इसका सूक्ष्म विश्लेषण प्रस्तुत करते हुए कहते हैं-‘‘वैश्वीकरण के साथ-साथ जब बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ अपने उत्पादों के लिए अन्तरराष्ट्रीय बाज़ार की खोज में बाज़ार युद्ध में उतरीं तो विज्ञापनों का भी युद्ध प्रारंभ हो गया। हर उत्पाद की मार्केटिंग के लिए विज्ञापन-रणनीति महत्त्वपूर्ण अंग है। अधिकांश विज्ञापन उपभोक्ता वस्तुओं से सम्बन्ध रखते हैं। इन वस्तुओं का बाज़ार शहरी मध्यवर्ग ही होता है जिनके पास नए उत्पाद खरीदने के लिए अतिरिक्त क्रय-शक्ति है। विज्ञापन-उद्योग की मीडिया पर निर्भरता इसकी प्रोग्रामिंग को भी प्रभावित करती है। अधिकांश विज्ञापन-संदेश अतिरिक्त क्रय-शक्ति वाले सामाजिक तबकों के लिए होते हैं। मीडिया की विज्ञापन-उद्योग पर भारी निर्भरता के कारण वही प्रोग्राम इसकी प्राथमिकता में शुमार होते हैं जो अतिरिक्त क्रय-शक्ति वाले सामाजिक तबकों में लोकप्रिय हों या लोकप्रिय बना दिए गए हों।’’6
 
(जारी....)

Tuesday, July 29, 2014

वनस्थली विद्यापीठ और मेरा प्रस्तुतिकरण

हम अपना ‘बेस्ट’ देने का भरसक प्रयत्न करते हैं...चाहे वे जितना भी हमें बाहर का रास्ता दिखाएं!

Tuesday, July 22, 2014

ओह! वनस्थली तुम भी....?

‘जनसंचार एवं पत्रकारिता(प्रिन्ट जर्नलिज़म)' विषय के अन्तर्गत सहायक प्राध्यापक पद हेतु साक्षात्कार के लिए आए एक आवेदक का विनम्र अनुरोध सहित शिकायत-पत्र


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प्रति,

कुलपति
वनस्थली विद्यापीठ।

महोदय,

यह ई-मेल आपको इस सम्बन्ध में प्रेषित किया जा रहा है कि आज ही दिनांक
20/07/2014 को ‘आपाजी मन्दिर’ में ‘जनसंचार एवं पत्रकारिता’(प्रिन्ट
जनर्लिज़म) विषय के अन्तर्गत सहायक प्राध्यापक पद हेतु साक्षात्कार हुए
जिसमें मेरा अंतिम रूप से चयन नहीं किया जा सका। इस बात का मुझे तनिक
दुःख नहीं है। लेकिन, मुझे साक्षात्कार के दौरान साक्षात्कारकत्र्ताओं के
रवैए असहज कर देने योग्य लगे। यदि आपके द्वारा सही और उपयुक्त आवेदक
चुनने का यही सर्वश्रेष्ठ आधार/मानदण्ड है, तो इसमें बदलाव अपेक्षित है।
फि़लहाल, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के गुरुकुल से अध्ययनजीविता का
संस्कार पाये हम जैसे विद्यार्थी आप तक अपनी यह शिकायत दर्ज करा सकते हैं
कि-‘वनस्थली मंदिर है, सौध, नीड़ है, गेह है, कुंज है, आलय है.....लेकिन
साथ ही साथ यहाँ हिन्दी भाषा के प्रति दुराग्रह/पूर्वग्रह भी हैं; यह
अविश्वसनीय तथ्य मुझ जैसे विद्यार्थी को हमेशा सालेंगे। इन अर्थों में
अधिक कि इस पवित्र विद्या-संस्थान में साक्षात्कार देने आने के पूर्व
मैंने पूरजोर मेहनत की और विषयानुरूप प्रस्तुति हेतु मुद्रित साक्ष्य भी
प्रस्तुत किए।(उनकी साॅफ्ट काॅपी ई-मेल के साथ अटैच है), तब भी उन
कार्यों का मूल्यांकन सिफ़र ही रहा।’

आशा है, आप स्वस्थ एवं सानंद होंगे।
सादर,

भवदीय,
राजीव रंजन प्रसाद
वरिष्ठ शोध अध्येता(SRF)
प्रयोजनमूलक हिन्दी पत्रकारिता
काशी हिन्दू विष्वविद्यालय
वाराणसी-221005
मो.: 7376491068

Rajeev Ranjan

AttachmentSun, Jul 20, 2014 at 5:44 AM
To: adityashastri@yahoo.com, saditya@banasthali.ac.in

Saturday, July 12, 2014

आज यों ही कुछ अपने मन की

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प्रिय देव-दीप,

शिक्षा-प्राप्ति का कार्य सबसे कठिन योग है। यह भीतरी प्राणायाम है। बाहरी को हम तीन रूपों में जानते हैं: रेचक(साँस को छोड़ना), पूरक(साँस को भरना) और कुंभक(साँस को रोकना)। जबकि भीतरी प्राणायाम है: संज्ञान, चिन्तन और स्फोट। भारत की प्राचीनता गुरुओं की बलिहारी इसीलिए है क्योंकि ''गुरु ही समस्त श्रेयों का मूल है। वह जिसके वाक्य-वाक्य में वेद निवास करते हैं, पद-पद में तीर्थ बसते हैं, प्रत्येक दृष्टि में कैवल्य या मोक्ष विराजमान होता है, जिसके एक हाथ में त्याग है और दूसरे हाथ में भोग और फिर भी जो त्याग और भोग दोनों में अलिप्त रहते हैं।'' यह विषय वर्तमान पीढ़ी को भली-भाँति समझनी होगी। शिक्षा ही हमारे जीवन का मूलाधार है। यह एक ऐसा बीजतत्त्व है जिसमें शारीरिक-बौद्धिक क्षमता, प्राकृतिक गुण-सौन्दर्य, सामाजिक मूल्य-बोध, जीवन-बोध, नैतिकता, संकल्प, स्वप्न, कल्पना, चिंतन, विचार, व्यावहारिक दृष्टिकोण आदि बँधे होते हैं। इसी से मनुष्य बड़ा बनता है, विशाल कर्मों का कत्र्ता बनता है और मानवीय संचेतना से लैस सम्पूर्ण मनुष्य भी।

ज्ञान चाय, चाउमिन का काॅकटेल नहीं है। यह पैकेजिंग या बम्पर प्लेसमेंट का सहमेल भी नहीं है। ज्ञान अपने वास्तविक अर्थों में प्रकृति के साथ सहजीवन है। एक ऐसी लौ है जो बाहरी चुनौतियों-संघर्षों से जितनी टकराती हैं, अपने अन्तरतम में उतनी ही प्रकाशमान होती हैं। आज किताबों में जो कुछ मुद्रित है, जिस भाषा में मुद्रित है, जिस तरीके से और जिस तरह मुद्रित हैं; वे सब के सब ज्ञान नहीं हैं। ज्ञान भाषा और लिपि में कूटीकृत अवश्य होती हैं जिसे सही अर्थ तक पहुँचाने के लिए जरूरी माध्यम चाहिए होता है; और वह है गुरु-माता और गुरु-पिता। मुझे मिले हैं, सो मैं यह सच जान सका। यह जानकरी पूँजी के बदौलत नहीं पायी जा सकती है। इसके लिए चाहिए निष्काम भाव-बोध, सच्ची आस्था और जिज्ञासू प्रवृत्ति।

देव-दीप, मैं ज्ञान-प्राप्ति के मसले पर इसलिए इतना जोर दे रहा हूँ कि हमारा पूरा शैक्षणिक माहौल बहुरूपिए शिक्षा-तंत्र के हवाले है। विश्वविद्यालयों में योग्यता सम्बन्धी गुण-शील हँसी और माखौल का विषय है। कभी अभिमानयुक्त-स्वाभिमानयुक्त चेतना-बोध से सुसज्जित रहने वाले विश्वविद्यालय आज अनगिनत विसंगतियों का शिकार हैं। शिक्षा के उपदेशक धनाढ्य बनने को लालायित है। लिहाला, फलानां गुरुजी के पास 10 करोड़ की सम्पति है, तो चिल्लाने कुलपति जी के पास 50 करोड़ के ज़मीन-जायदाद। सामान्यजन जिनके लिए डाॅक्टर भी देवता, शिक्षक भी भगवान होता है; हैरान-परेशान है कि यदि शिक्षक का व्यक्तित्व चोर, मवाली, माफिया, अपराधी और भ्रष्ट राजनीतिज्ञ के समानधर्मा है, तो फिर बच्चे पाॅकेटमारी करें, तो उन्हें ताड़ना क्यों दें? किसी पड़ोस की लड़की के साथ छेड़छाड़ करें, तो उसे रिश्तों की संवेदनशीलता समझने और उसकी कद्र करने की दुहाई क्यों दें? यदि लड़के बात-बात में मारपीट और हिंसा पर उतारू हो जायें, तो उन्हें यह क्यों समझाये कि बिना अपनापा और घनिष्ठता के समाज में रहना दूभर हो सकता है? यदि अध्यापक का चरित्र खुद ही दूषित और आचरण अनैतिक हो, तो फिर हम बच्चों से किस मुँह से कहें कि अपनी चरित्र को खोना अपनी सबसे बहुमूल्य सम्पति/धरोहर को खोना है?

मेरी मानों तो बच्चों, बहाव के रौ में बहना एक बात है और अपनी मूल पहचान ही खो देना दूसरी बात। आजकल राष्ट्रीय चरित्र-निर्माण की बातें बढ़-चढ़ कर की जा रही हैं। लोग सुन भी रहे हैं। यदि लोग कुते की भौं-भौं को सुनकर ही जग जाने लगे, तो इसके लिए क्या हमें अपनी ‘मुर्गे की बांग’ वाली मुहावरा बदल लेने चाहिए। लोग तेजी से अपने जीवन जीने के तौर-तरीके बदल रहे हैं, भाषिक बोल-बर्ताव का ढंग बदल रहे हैं, हर कोई हर दूसरे से अलग/भिन्न दिखने को आतुर-बेताब है। समाज जिसके बारे में अरस्तू का कहना था कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है; की मान्यता खारिज हो रही है। वर्जनाओं या रूढ़ियों को टूटने से हमें नहीं डरना चाहिए; लेकिन यदि इसे सिर्फ मौज के नाम पर तोड़ दिया जाये और उल्टे अपनी ज़िदगी को ही नारकीय बना लें, यह नहीं होना चाहिए।

खैर! आपसब ने मेरी आरजू-विनती सुन ली अब अपने हिसाब से खुश रहें, अपनी दुनिया में मस्त रहें...मेरी ओर सो नो रूल...नो बार!!

आपका पिता
राजीव  

Thursday, July 10, 2014

जानिए तो सही: मैं ब्लाॅगिंग क्यों करता/करती हूं...?

हिन्दी ब्लॉगर के मनोविज्ञान पर एक सर्वे : आइये दो मिनट समय दे कर इसे भरें

एक निवेदन ब्लॉगर और सोशल मीडिया पर सक्रिय मित्रों से!


प्रो0 अनीता कुमार जी, मुम्बई के एक महाविद्यालय में वरिष्ठ प्रोफ़ेसर हैं। हाल फिलहाल उन्होने बातचीत और संदेश के माध्यम से बतलाया कि वह वे हिंदी ब्लॉगरों के संबंध में मनोविज्ञान के क्षेत्र में पीएचडी कर रही हैं जिसके लिए उन्हें आप सभी चिट्ठाकार मित्रों का अभिमत चाहिएऔर उनका विषय है - "हिन्दी ब्लॉगर"।
अनीता कुमार जी हिन्दी ब्लॉगर्स के व्यक्तित्व और ब्लॉग चलाने के कारण जानने की कौशिश कर रही हैं। जिसमे तीन भाग हैं-
  • (1) व्यक्तिगत सूचना
  • (2) व्यक्तित्व प्रश्नावली
  • (3) प्रेरणा प्रश्नावली.
इस शोध के लिए उन्होंने एक ऑनलाइन सर्वे / प्रश्नावली तैयार की है, जिसे सिर्फ आपको टिक करते हुए भरना है। आप सभी से निवेदन है कि  है कि आप अपना मत/ राय अवश्य प्रदान करें।  इसके लिए अनीता जी ने तीन अलग अलग पृष्ठों का एक ऑनलाइन सर्वे बनाया है, जिसे आप तत्काल ऑनलाइन भर कर उनके इस  हिन्दी ब्लोग्गेर्स के शोध में न केवल भरपूर मदद कर सकते हैं, बल्कि हिंदी ब्लॉगरों के विषय में भी और अधिक मनोवैज्ञानिक रूप से समझे जाने की इस प्रक्रिया मे सहयोग कर सकते हैं।  कृपया सीधे सर्वे में जा कर अपना अभिमत दर्ज कराना चाहते हैं तो लिंक है - http://www.surveymonkey.com/s/GDM9KD3




कृपया ध्यान रखें कि यह सर्वे 3 पृष्ठों में फैला है, अतः कृपया कोई भी पृष्ठ रिक्त न छोड़े। 
अपने शोध हेतु उन्हें कम से कम 300 हिन्दी ब्लॉगर्स के सर्वे की आवश्यकता है।  इस मनोवैज्ञानिक शोध में उन्हें भी शामिल किया जा रहा है, जो ब्लॉगर्स नहीं हैं, लेकिन इंटरनेट/फेसबुक पर सक्रिय हैं।  यदि वाकई में आप एक गंभीर हिन्दी ब्लॉगर हैं, तो कृपया तीन  श्रेणियों में विभाजित इस सर्वे को ऑनलाइन भरकर जमा करें व इनकी मदद करें।

सभी हिन्दी ब्लॉगर मित्रों से भी निवेदन है कि अगर हो सके तो अपने जान पहचान वाले अन्य हिन्दी चिठ्ठाकारों को भी लिंक भेज कर मेरी तरफ़ से अनुरोध करें कि वो भी भर दें तो बड़ी कृपा होगी। आशा है आप निराश नहीं करेगें धन्यवाद।  

‘प्राइम-पाॅलिटिक्स’ कार्यक्रम के लिए फाइनेंसर खोजने में जुटे आर.आर.पी

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Wednesday, July 9, 2014

भारतीय राजनीति में स्त्रियों को ‘इंट्री’, तवज्ज़ो नहीं

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Report : Rajeev Ranjan Prasad

कम असरदार लोग राजनीतिक-दौड़ में बुरी तरह पिछड़ जाते हैं। वे आँकड़ों की निगाहबानी में नहीं आ पाते हैं क्योंकि उन्हें कुतों/बिल्लों को ढंग(?) से पालना-पुचाकारना और  उन्हें अपने आगोश में भरना नहीं आता है। भारत जहाँ पैदाइश से ही मर्दवादी सोच हावी है; की राजनीति में स्त्रियों की सहभागिता, नेतृत्व और हासिल मुकाम देखें, तो वह पुरुषों के बनिस्पत सर्वथा नीचे की कोटि में दर्ज है। ‘हाथ कंगन को आरसी क्या’ वाली तर्ज पर कहें, तो इंडिया टुडे ने अप्रैल 2011 में भारतीय जनगणना के समानान्तर आला भारतीयों हस्तियों की सूची प्रकाशित की थी जिसमें वैभवशाली/गुणशाली औरतों का नाम टाॅप-40 में अनुपस्थित था। अगले 10 हस्तियों में जो चार नाम शामिल थंे: चंदा डी. कोचर, परमेश्वर गोदरेज, सायना नेहवाल, कैटरीना कैफ।.....

Math

Please Solve it :
1-a2-b2-2ab

यह प्रश्न 10वीं बोर्ड परीक्षा मंे पूछा गया था 1998 ई. में। गणित और विज्ञान के प्रेम और लगाव ने मुझे स्कूल टापर्स बना दिया। आज भी गणित की ओर देखता हूँ, तो आँख लोरा जाते हैं। पत्रकारिता की झोंक ने मुझे किधर से किधर ला खड़ा कर दिया। खैर, वापसी हुई तो भी दिक्कत नहीं है। यह मेरे लिए पुरानी मुहब्बत है...ज़िदगी कट जाएगी निश्चित ही।

Saturday, July 5, 2014

प्रिन्ट जर्नलिज़म: मशीनी ज़माने में अक्षरों की इबारतें

बहुरंगीय और बहुसंस्करणीय पत्र/पत्रिकाएँ
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पृष्ठीय आसमान में साज-सज्जा का इन्द्रधनुष
(एक टटोल, एक मूल्यांकन)
Rajeev Ranjan Prasad
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सहस्त्राब्दी का पहला दशक बीत चुका है। दूसरा दशक बीता जा रहा है। भारतीय समाचारपत्रों में जो अप्रत्याशित बदलाव होते दिख रहे हंै; राॅबिन जेफ्री उसे ‘भारत में समाचारपत्र क्रांति’ की संज्ञा देते हैं। वाकई भारतीय प्रायद्वीप में विज्ञान और प्रौद्योगिकी आधारित तकनीकी-क्रांति की लहर धुंआधार है। एक ही अख़बार के कई-कई संस्करण और हर संस्करण का अपना एक स्थानिक पहचान और पाठकीयता-बोध है। पठनीयता के स्तर पर सामान्य साक्षर से लेकर उच्चशिक्षा प्राप्त पाठक तक शामिल हैं। ये हर रोज समाचारपत्रों को पढ़ और सराह रहे हैं। यह उभार इसलिए भी दृष्टिगोचर है कि यह माध्यम कई अछूते क्षेत्रों अथवा सुदूरवर्ती इलाकों में अभी-अभी ‘लांच’ हुआ है। यह गति आमजन के बीच ‘सूचना एवं विचार’ की अनुपस्थिति का द्योतक है। शासन-व्यवस्था ने एक बड़े भू-भाग में बसी आबादी को सायासतः मुख्यधारा के जनमाध्यमों से काट कर रखने का उपक्रम/खेल किया है जिसे आज बाज़ार भुनाने पर आमादा है। एक सचाई यह भी है कि बाज़ारतंत्र की घुसपैठ और वर्चस्व की राजनीति से अधिसंख्य पाठक-वर्ग पूर्णतः नावाकिफ़ है। वे इस तथ्य से अनभिज्ञ हैं कि आमजन से सम्बन्धित सूचना-सामग्री के निर्बाध संचरण में ये बाज़ारवादी शक्तियाँ अवरोधक का काम कर रही हैं। यानी बाज़ार का मुख्य ध्येय जनसमाज का उपभोक्ता-समाज में रूपान्तरण है। नानाविध संस्करणों का प्रचलन वास्तव में इसी कुत्सा का विस्तारण है। एक सामान्य पाठक के लिए यह सचाई सिर्फ एक पहेली है; क्योंकि उसका सीधा सामना नवसाम्राज्यवादी ताकतों या कि मीडिया कारपोरेटों से नहीं है। फिर भी उन्हें इस सचाई का भान है कि इन दिनों पत्रकारिता में गलाकाट प्रतिस्पर्धा है। बाज़ार में बने रहने की जबर्दस्त होड़ है। इस होड़ में अधिसंख्य पत्र-पत्रिकाएँ ‘एम्बुश मार्केटिंग’ करने में सिद्धहस्त हैं। यानी बाज़ार में अपने प्रतिद्वंद्वी उत्पाद के समांतर स्वयं को खड़ा करने या अपनी छवि को जबरिया प्रक्षेपित/विज्ञापित करने की मारामारी चरम पर है।

देखना होगा कि पहले समाचारों के चयन में ‘कंटेंट’ के स्तर पर विशेष सर्तकता बरती जाती थी। प्रस्तुति के लिए खास ‘फार्म’ अपनाए जाते थे। पत्रकारिता का मूलाधार ही था-यथार्थता(Accuracy), वस्तुपरकता(Objectivity), निष्पक्षता(Fairness), संतुलन(Balance) और  स्रोत(Sourcing-Attribution)। निःसंदेह राष्ट्रीय समाचारपत्रों की प्राथमिकता में दो तत्त्व प्रधानतः विद्यमान थे-समाचार-बोध(News Sense) एवं समाचार.मूल्य(News Value)। किन्तु आज बाज़ारवादी प्रवृत्तियों ने इस पारम्परिक अवधारणा को उलट दिया है। वर्तमान में पत्रकारिता अंधव्यावसायिकता की शिकार है। उसका ध्येय लोककल्याणकारी और जनपक्षधर होना कम लाभ का बहुलांश मात्रा अर्जित करना अधिक है; वो भी येन-केन-प्रकारेण शर्तों पर। आज ख़बरों में ग्रामीण समुदाय, नवाचार आधारित विकास, संस्कारयुक्त शहरी बौद्धिकता तथा प्रगतिशील सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन-दर्शन नदारद है या हैं भी तो ‘फीलर’(प्रतिपूर्ति) के रूप में। समाचारपत्रों के अतिरिक्त बाज़ार में धड़ल्ले से बिकते नियतकालिक पत्रिकाओं का भी कमोबेश यही हाल है। उनका यह बदला चाल-चरित्र आज पृष्ठ पर आकर्षक रूप-प्रारूप में अवतरित है जिसे साज-सज्जा के संपादन-संयोजन के अन्तर्गत विशेष तरीके से तैयार किया जा रहा है। निश्चय ही यह निर्मिति मशीनी संस्कृति का हिस्सा है जो अत्यंत महत्त्वपूर्ण और प्रभावशाली है। दुःखद पहलू यह है कि यहाँ बाजा़र की भूमिका नीति-निर्धारक की है। अब बाज़ार यह तय करने लगा है कि पत्र/पत्रिकाओं का क्या रंग-रूप, साज-सज्जा, अन्तर्वस्तु, शैली और भाषा आदि हो। यह मीडिया का नया चेहरा है जिसे बाज़ार चित्ताकर्षक और प्रभावशाली सजावट की ‘फे्रमिंग’ से पाटने की परिपाटी में संलिप्त हैं। खेप-दर-खेप छपते एक ही अख़बार के दर्जनों संस्करण हमारे सामने हैं। यह पत्रकारिता का मूल्यहीन दौर है जहाँ बाज़ार की भाषा का वर्चस्व है। नवसाम्राज्यवादी ताकतों का एकाधिकार है। बाज़ार ने सुबुद्ध पाठकों को आज की तारीख़ में एकनिष्ठ उपभोक्ता मान लिया है जिसकी दृष्टि में वह समाचारपत्र एवं पत्रिकाओं को न सिर्फ एक उत्पाद की तरह आज़मा रहा है, बल्कि उसके गुणगान में अहर्निश जुटा हुआ भी है।

अतः ‘सीइंग इज बिलीविंग’ का पुराना सिद्धान्त ध्वस्त हो चुका है। यानी जो कुछ दिखता है पूरी तरह विश्वसनीय नहीं है और जो विश्वसनीय होता है वह दिखता नहीं है। परिणामस्वरूप आज ‘सूचना’ और ‘मनोरंजन’ गड्डमगड्ड हो गए हैं, तो विचार और विज्ञापन के बीच विभेद कर पाना टेढ़ी खीर है। बाज़ार ने ‘इन्फाॅटेनमेंट’(इन्फाॅर्मेशन और इन्टरटेनमेंट) और ‘एडवोटोरियल’(एडवरटीजमेंट और एडोटोरियल) जैसे मिश्रित शब्दावली को न सिर्फ गढ़ा है बल्कि उसकी उपयोगिता के सुअवसर भी उपलब्ध कराए हैं। पैसे देकर अपने मनोनुकल ख़बरें बनवाने और उसे बाकायदा पत्र/पत्रिकाओं में प्रकाशित करने की ‘पेड न्यूज़’ संस्कृति इसी अंधव्यावसायिकता की देन है। यह अवश्य है कि पत्र/पत्रिकाओं के पृष्ठ पर साज-सज्जा सम्बन्धी अल्पना-रंगोली पाठकों को चकित-विस्मित करने में सफल हैं; किन्तु विचार और दृष्टि के स्तर पर जो खोखलापन और रिक्तता है; वह सुबुद्ध पाठकों को आज भी सर्वाधिक निराश करता है। इस तरह आमोखास का मीडिया एक वर्ग विशेष से जुड़ गया है जिसको उदारवादी अर्थव्यवस्था पाल पोस रही है। मुनाफे की थ्योरी ख़बरों पर हावी है। पत्र/पत्रिकाएँ रंगीन पृष्ठों की चमक-दमक से पाठकों को रिझाने की जुगत में हैं। इस प्रचार-तंत्र के मजबूत नेटवर्क में दिखावा/प्रदर्शन के प्रति आकर्षण एवं दिलचस्पी बहुत है, वहीं आत्मावलोकन और आत्ममंथन की स्थिति न के बराबर।

आज के समाचारपत्रों के सन्दर्भ में यह कहना सही है कि मुद्रण-व्यवस्था पहले से ज्यादा उत्कृष्ट और लागत में किफ़ायती है। कंप्यूटर और सूचना-संजाल के नव्यतम साधनों ने समाचारपत्रों में ऐसे अनेकानेक बदलाव किए हैं जिस बारे में कलतक सोच पाना भी दूर का कौड़ी था। समाचारपत्र साफ-सुथरे और देखने में सुघड़ हैं सो अलग। प्रकाशित चित्र स्पष्ट हैं, तो उनमें चित्रात्मक गहराई और आवश्यक उभार बेहद प्रभावशाली है। समाचारपत्रों के परिशिष्ट ज्यादा प्रयोगधर्मी हैं। वे आजकल लेखों, चित्रों तथा विज्ञापनों को दो पृष्ठों के मध्य फैलाकार प्रकाशित करने लगे हैं। आधुनिक तकनीकी माध्यम और विकल्पों ने इस ‘सेन्टर स्प्रेड’ प्रविधि को काफी कलात्मक और प्रभावी ढंग से आज़माना शुरू कर दिया है। यह कहना अतिश्योक्तिपूर्ण नहीं होगा कि मनमाफिक मोटाई और आकार-प्रकार वाले शीर्षकों के प्रयोग ने पाठकों के दृष्टि-बोध और आकर्षणियता में रोमांच पैदा कर दिया है। आज पृष्ठ-निर्माणकत्र्ता के पास कंप्यूटर आधारित तकनीकी औजार के असीमित विकल्प हैं। वह स्थान की उपयुक्तता और स्थिति के हिसाब से पृष्ठीय समायोजन करता है। अधिसंख्य समाचारपत्रों के ‘डिजाइन’ तयशुदा होते हैं। उन्हें बस लेआउट बनाने के दरम्यान पृष्ठीय-मेकमप सम्बन्धी तैयारी में घंटों मगजमारी करनी पड़ती है। अतः पत्र/पत्रिकाओं के प्रभावी साज-सज्जा के तीन मूल घटक हैं जिस पर पृष्ठ-सज्जाकार का ध्यान केन्द्रित होता है; वे हैं-डिजाइन, लेआउट और मेकअप। यही नहीं समाचारपत्रों एवं पत्रिकाओं के पृष्ठ साज-सज्जा सम्बन्धित कुछ आवश्यक शर्तें तथा बुनियादी तथ्य भी गौरतलब है जिसका सदैव ख्याल रखा जाना चाहिए।
  •     डिजाइन, मेकअप और लेआउट के स्तर पर पत्रों के पृष्ठ निर्माण के सामान्य नियम:
1.    संतुलन
2.    फोकस
3.    विरोधाभास
4.    संगति
5.    गति
  •     डिजाइन, मेकअप और लेआउट के स्तर पर पत्रों के पृष्ठ साज-सज्जा के ध्यातव्य बिन्दु:
1.    सुरुचिपूर्ण सजावट
2.    दृश्यात्मक प्रभाव
3.    पाठकों को आकर्षित करने की क्षमता
4.    प्रतिस्पर्धी पत्र/पत्रिकाओं से भिन्नता
5.    पर्याप्त खाली जगह
6.    सही टाइप का चुनाव
7.    बाॅक्स, ग्राफिक्स, एनीमेशन, फोटोग्राफ के चुनाव एवं प्रयोग सम्बन्धी ज्ञान/विवेक
8.    रंग-संयोजन
9.    नवीनता और विविधता

प्रायः समाचारपत्रों में नियमित रूप से प्रकाशित होने वाले आधार-सामग्री(पत्र का लोगो, डेटलाइन, पंचलाइन, फ्लैग, इयर्स, हेड रूल, मास्ट हेड) बिना किसी फेरबदल के प्रकाशित किए जाते हैं। पृष्ठ-सज्जाकार सिर्फ लेआउट और मेकअप सम्बन्धी पहलुओं पर ही विचार या पुनर्विचार करता है। वह समाचारपत्र में समाचारों, चित्रों, विज्ञापनों के अतिरिक्त अन्य सामग्रियों को कुछ इस तरह सजाता है कि वह अधिक आकर्षक प्रतीत हो। एक मेकअप-मैन संपादकीय विवेक/दृष्टि के मनोनुकूल तमाम बदलाव कर बेहतर से बेहतर ‘लेआउट’ तैयार करने का प्रयत्न करता है। ये बदलाव पत्र के व्यक्तित्व और दृष्टि के अनुरूप ही कार्य करते हैं। ध्यातव्य है कि अख़बार का डिजाइन(एक ऐसा ढाँचा जिसे लगभग स्थायीत्व प्राप्त होता है) ही पाठक के लिए उस पत्र के पहचान का प्रमुख कारण बन जाता है। उसमें पृष्ठों का वर्गीकरण इस तरह होता है कि खेल से सम्बन्धी ख़बरें खेल पृष्ठ पर हो, तो कारोबार-व्यवसाय से सम्बन्धित ख़बरें कारोबार-जगत के पृष्ठ पर। प्रायः कुछ खास रंगों, रेखांकनों, पट्टियों और बार्डर-लाइन फे्रमिंगों के द्वारा पत्र के अन्य सामग्रियों से संतुलन एवं संगति बैठाने की चेष्टा की जाती है। यह एकरूपता कई रूपों/प्रारूपों में देखने को मिलती है। प्रत्येक अख़बार अपने मुख्य-पृष्ठ पर विज्ञापन(विशेषकर डिस्पले विज्ञापन) के लिए पर्याप्त जगह छोड़ते हैं; लेकिन कई मर्तबा आधे-आधे पृष्ठ के विज्ञापन भी प्रकाशित किए जाते हैं। यह भी देखने में आता है कि समाचारपत्र किसी पृष्ठ के 10 प्रतिशत हिस्से में ही कोई समाचार छापता है। बाकी पृष्ठ भौड़े इश्तहारों से अटे पड़े होते हैं। इस तरह के पृष्ठीय सजावट पत्र में प्रकाशित ख़बरों और विज्ञापनों के समीकरण को बिगाड़ते हैं। इससे समाचारपत्र का सौन्दर्य और पृष्ठीय आकर्षण घट जाता है।

वस्तुतः समाचारपत्र के मुख्य-पृष्ठ पर विशेष ध्यान दिया जाता है; क्योंकि वह किसी समाचारपत्र का ‘शो-विन्डो’ होता है। कई समाचारपत्र पत्र के नाम-पट्टिका यानी ‘फ्लैग’ के साथ दोनों ओर ‘इयर्स’ लगाते हैं। यहाँ पहले विज्ञापनों के देने का चलन था। अब उनकी जगह भीतर के पृष्ठों पर प्रकाशित रोचक/मनोरंजक ख़बरों से सम्बन्धित चित्र छपे होते हैं। समाचारपत्र मुख्यपृष्ठ पर महत्त्वपूर्ण ख़बरों से सम्बन्धित सारी सामग्री न देकर शेषांश भीतर के पृष्ठों पर देते हैं जिनका अपना एक पूर्व-निर्धारित पृष्ठ होता है। इस प्रक्रिया को समाचारपत्र की भाषा में ‘कैरी ओवर’, ‘ब्रेक ओवर’ या ‘रन ओवर’ विभिन्न नामों से जानते हैं। कुछ लोग इस ‘जम्प’ भी कहते हैं। ये शेषांश अन्दर के पृष्ठों पर जिस शीर्षक से प्रकाशित किए जाते हैं; उन्हें ‘जम्प लाइन’ कहते हैं। कई महत्त्वपूर्ण ख़बरों को समाचार-लेखक के नाम और पदनाम के साथ देने का चलन है; इसे ‘बाई लाईन’ कहते हैं। इसी तरह समाचार-स्रोत से सम्बन्धित एक संकेतक ‘क्रेडिट लाइन’ प्रयुक्त होता है। किसी पत्र में ‘प्रकाशित चित्रों से सम्बन्धित जो सूचनात्मक पंक्ति प्रकाशित की जाती है; उसे ‘कैप्शन’ के नाम से जानते हैं। बेहद संक्षिप्त और सहज-सरल शब्दों में ‘कैप्शन’ अमुक चित्र का सारा ब्योरा प्रस्तुत कर देता है। ख़बरों के स्तर पर स्थानीय ख़बरों के साथ-साथ राष्ट्रीय-अन्तरराष्ट्रीय ख़बरों के लिए समाचारपत्र एक व्यापक दृष्टि अपनाते हैं। प्रायः वे सबसे महत्त्वपूर्ण ख़बर को पत्र के शीर्ष पर बड़े-बड़े शीर्षकों के द्वारा प्रकाशित करते हैं जिसे ‘बैनर’ कहते हैं। इसी प्रकार सभी अख़बार ‘सम्पादक के नाम पाठकों के पत्र’ स्तंभ प्रकाशित करते हैं। यह स्तंभ पाठकीय सहभागिता का मंच है जिस पर वे अपने विचारों की अभिव्यक्ति द्वारा पत्र की दृष्टि/नीति से सहमति/असहमति प्रकट करते हैं। साथ ही पत्र में प्रकाशित अन्य सामग्रियों के बारे में अपनी त्वरित प्रतिक्रिया अथवा राय/टिप्पणी से सम्पादक को अवगत कराते हैं। यह प्रतिपुष्टि किसी भी समाचारपत्र के लिए अतिमहत्त्वपूर्ण है जिसे पत्र अपने सम्पादकीय पृष्ठ पर नियमित प्रकाशित करता है।

दैनिक समाचारपत्रों में साफ और सुघड़ किनारे वाले मुद्रित अक्षर, प्रकाशित चित्र एवं विज्ञापन तो मुख्य घटक होते ही हैं। साथ में कई सहयोगी चीजें भी पृष्ठीय समायोजन के अन्तर्गत विशेष कलात्मक प्रभाव पैदा करती हैं। यथा-जरूरी खाली जगह, बाॅक्स, एनिमेटेड चेहरे, बार्डर, छोटे-बडे रंगीन वृत के छल्ले तथा पृष्ठीय रंग एवं अक्षरों की घुमावदार/सजावटी आकार-प्रकार। वर्तमान में रंगों के ढेरों विकल्प हैं। प्राथमिक रंग के अतिरिक्त द्वितीयक रंगों का प्रयोग आज के समाचारपत्रों द्वारा बढ़-चढ़ कर किया जा रहा है। इसी तरह समाचारपत्रों में उध्र्वाधर स्तंभ-रेखा अपनी विशिष्ट भूमिका में होते हैं जो संख्या में सामान्यतः छह से आठ के बीच होती हैं। दो स्तंभ-रेखाओं के बीच एक निश्चित स्थान ऊपर से नीचे तक छोडे़ जाते हैं। ये ‘व्हाइट स्पेस’ समाचारपत्रों में एक निर्धारित चैड़ाई का स्थान छेंकते हैं। लेकिन ये हर रोज एक ही तरह से प्रकाशित हों; यह आवश्यक नहीं है। इस खाली जगह में कई बार ‘काॅलम रूल’ लगाए जाते हैं जो एक उध्र्वाधर पतली रेखा होती है। यह दो भिन्न-भिन्न समाचारों के बीच भिन्नता और साज-सज्जा सम्बन्धी विविधता को प्रदर्शित करता है।

बात साज-सज्जा की:
मुद्रण कला में अधुनातन तकनीक और प्रौद्योगिकी का प्रयोग बढ़ा है। आज पत्र/पत्रिकाओं के बनाव-ठनाव और प्रस्तृति के रंग-ढंग में खासा बदलाव इस बात का संकेत है कि पत्रकारिता नित नए प्रयोग से उन्नत और पृष्ठीय सजावट के स्तर पर समृद्ध हो रही है। साज-सज्जा के स्तर पर हो रहे इन कलात्मक प्रयोगों ने विज्ञान के उन सभी प्रयोगशील प्रविधियों को आजमाना शुरू कर दिया है जिससे पत्र/पत्रिकाओं के कलेवर और आवरण में गुणात्मक वृद्धि संभव हो। आज समाचारपत्रों में रंगीन पृष्ठों का चलन बढ़ा है। समसामयिक पत्रिकाएँ इस कला में ज्यादा कुशल और पारंगत हैं। कहना न होगा कि आकर्षक छाप-छपाई और अक्षरों की सुघड़ता ने पत्र/पत्रिकाओं के पाठको को तेजी से अपनी ओर खींचा है। पाठकीय रुझान में आये इस बदलाव के पीछे पत्र-पत्रिकाओं का पृष्ठनिर्माण सम्बन्धी योग्यता और सूझ-बूझ महत्त्वपूर्ण है। अतः पृष्ठीय साज-सज्जा में पहले की तुलना में गुणात्मक वृद्धि आज की सचाई है जिसे कंप्यूटर के माध्यम से अमली जामा पहनाया जा सका है। आज पत्र/पत्रिकाएं ‘टाइपसेटिंग’ और ‘डमी’ बनाने की उस पुरानी पद्धति से लगभग मुक्त हो चुकी हैं जिसका संपादन-संयोजन श्रमसाध्य होने के अतिरिक्त जटिल और समय के हिसाब से काफी खर्चीला दोनों था। यह बचत महत्त्वपूर्ण है क्योंकि साज-सज्जा का प्रमुख सिद्धान्त होता है-न्यूनतम समय में श्रेष्ठतम कार्य। पत्र/पत्रिकाओं में साज-सज्जा सम्बन्धी बोध और सम्यक दृष्टि होना अनिवार्य है; क्योंकि ये किसी पत्र/पत्रिका की परम्परा, उनके आदर्श और उनके व्यक्तित्व पर निर्भर करती है। पत्र/पत्रिकाओं में साज-सज्जा की चेतना जितनी सूक्ष्म और संवेदनशील होगी प्रस्तुतीकरण उतना ही उम्दा और विशेष होगा। पाठकों के साथ मनोवैज्ञानिक अन्तर्संबंध स्थापित करने में पत्र/पत्रिकाओं की साज-सज्जा प्रमुख कारक है जिसके प्रत्यक्षीकरण द्वारा एक पाठक का रुझान अमुक पत्र या पत्रिका के प्रति गाढ़ा होने लगता है। ऐसे में पत्र/पत्रिकाओं की जवाबदेही बनती है कि उनके संपादक और अन्य सहयोगी साज-सज्जा को लेकर सदैव सजग और सचेष्ट हों। इस सम्बन्ध में पत्रकार कमलापति त्रिपाठी और पुरुषोत्तमदास टण्डन ने जो कहा है; द्रष्टव्य है-‘जो पत्र शुष्क, नीरस तथा भौण्डे स्वरूप का परिचय देंगे उनके लिए अधिक समय तक स्थान बना नहीं रह सकता। आकर्षक और रोचक ढंग से निकलने वाले समाचारपत्र क्रमशः उनके स्थान ग्रहण कर लेंगे।’ वर्तमान में डेस्क टाॅप पब्लिशिंग पद्धति ने पत्र/पत्रिकाओं को डिजीटल फोटोग्राफी, ग्राफिक्स, एनिमेशन, टेक्स्ट मोड, कलर-कम्बिनेशन और मनचाहा स्पेसिंग सम्बन्धी तकनीकी औजार सुलभ कराये हैं जिससे पृष्ठीय साज-सज्जा में अप्रत्याशित बदलाव संभव हो सका है। पत्र/पत्रिकाएं ब्लीड पिक्चर्स और क्राप्ड पिक्चर्स की तकनीक का सहारा लेते हुए दृश्यात्मक प्रभाव उत्पन्न करने की हरसंभव चेष्टा करती हैं। प्रयोग के स्तर पर ब्लीड पिक्चर्स ऐसे चित्र हैं जो उस पन्ने से बड़े होते हैं जिन पर वे छापे जाते हैं। ऐसी स्थिति में चारों ओर से ट्रिमिंग पद्धति द्वारा उन्हें ‘एडजस्ट’ किया जाता है। दूसरी ओर क्राप्ड पिक्चर्स ऐसी तस्वीरों को कहते हैं जिनके कमजोर हिस्से को हटाने के लिए उन तस्वीरों की क्रापिंग करनी पड़ती है। इस प्रक्रिया में चित्र के सबसे रोचक, प्रासंगिक और नाटकीय पक्ष को उभारने का प्रयास किया जाता है। वास्तव में मुद्रित माध्यम इलेत्रिक माध्यमों के दृश्यात्मक प्रभाव की महत्ता को समझ चुका है। उसकी स्पर्धा सीधे-सीधे तो नहीं किन्तु परोक्ष रूप से इलेत्रिक माध्यम से भी है। इस तरह साज-सज्जा एक ऐसा क्षेत्र है जहाँ पत्रकारिता के कला-पक्ष और व्यावसायिक पक्ष दोनों का ही समन्वय होता है।

समाचारपत्रों की साज-सज्जा:
समाचारपत्रों का प्रसार-क्षेत्र व्यापक है। सर्वाधिक पहुँच के स्तर पर पाठकीयता बेजोड़ है। प्रायः पाठकों का स्तरीकरण वैविविध्यपूर्ण, तो दृष्टिबोध व्यक्तिगत रुझाान के मुताबिक भिन्न-भिन्न होते हैं। ऐसे में विषय और सामग्री की बहुलता के मद्देनज़र चयन की उपयुक्त कसौटी या विवेक न होने की स्थिति में प्रस्तुतीकरण के मुद्दे पर किसी भी समाचारपत्र के समक्ष कठिनाई उत्पन्न होना स्वाभाविक है। यह सचाई है कि समाचारपत्रों के कक्ष में सार्वदेशिक(स्थानीय विशेष) घटनाओं से सम्बन्धित सूचनाओं, आंकड़ों, तस्वीरों तथा अन्य सामग्रियों की आमद चैबीसों घण्टे बनी रहती है। इस स्थिति में साज-सज्जा सम्बन्धी तैयारी विशेष योग्यता की मांग करता है। चूंकि समाचारपत्रों के लेआउट बदलने के आसार अंतिम क्षण तक बरकरार रहते हैं; अतः पृष्ठनिर्माण में जुटे व्यक्ति को हमेशा चैकस और सचेष्ट रहना पड़ता है। सभी पृष्ठ जबतक छप नहीं जाते हैं; ये स्थिति सर पर सवार रहती है। मुख्य-पृष्ठ को किसी समाचारपत्र का ‘शो विण्डो’ कहा जाता है। अतः इसके लेआउट को तैयार करने में विशेष सतर्कता बरतनी पड़ती है। मुद्रण के अंतिम क्षण(डेडलाइन) तक कोई महत्त्वपूर्ण ख़बर न छूटने पाए, इसको लेकर पृष्ठनिर्माणकर्ताओं में ऊहापोह की स्थिति कायम रहती है। समाचारपत्रों का पृष्ठीय कैनवास बड़ा होता है किन्तु पृष्ठ सीमित। अतः पृष्ठों पर सम्बन्धित सामग्रियों के संयोजन/संपादन के लिए अतिरिक्त सूझ-बूझ की आवश्यकता पड़ती है। सभी पृष्ठों में एक खास तरह की समरूपता होना अनिवार्य है। इसके अतिरिक्त आपसी संगति और अन्वीति पृष्ठीय सामग्री के विविध रूपों; यथा-टेक्सट, टाइप, साइज, कलर, फोटो, एनिमेशन, ग्राफिक्स, साइन, बार्डर, बाॅक्स, सेप्स, लाइन इत्यादि के समग्र प्रभाव को निश्चित-निर्धारित करता है।   

पत्रिकाओं की साज-सज्जा:
समाचारपत्रों के बनिस्पत पत्रिकाएं ज्यादा प्रयोगधर्मी होती हैं। उनके पास संयोजन/संपादन के लिए पर्याप्त किन्तु नियत समयावधि होना एक महत्त्वपूर्ण कारक है। पत्रिकाओं में पृष्ठों की सीमा तयशुदा अवश्य होती हैं किन्तु मात्रा में अधिक होना सजावट सम्बन्धी प्रयोग की विविधता में अभिवृद्धि कर देता है। यह जरूर है कि सामग्री चयन सम्बन्धी विवेक और दृष्टि पत्रिकाओं के लिए मायनेपूर्ण हैं, लेकिन यहाँ समाचारपत्रों की माफिक ‘सबको कुछ-कुछ’ प्रकाशित करने की अनिवार्यता या किसी किस्म की पत्रकारीय बाध्यता नहीं होती है। प्रायः पत्रिकाओं में रंगों का पृष्ठीय कोलाज बनाने तथा पत्रिका के कलेवर के अनुरूप दृश्यबोध उत्पन्न करने पर विशेष ध्यान दिया जाता है। कुछ पत्रिकाएँ निहायत सादगी से बड़ी से बड़ी बात कह ले जाती हैं जो अंतस को गहरे वेधती हैं और दीर्घकालिक असर भी छोड़ती हैं। कहना न होगा कि इन पत्रिकाओं में प्रकाशित सामग्री की पड़ताल सूक्ष्म तरीके से की गई होती है जो अन्तर्वस्तु विश्लेषण के स्तर पर वस्तुपरक, गांभीर्यपूर्ण तथा विश्वसनीय होती हैं। इसके अतिरिक्त प्रदत सूचनाएं एवं आंकड़ें वैज्ञानिक रीति से संपादित/संसोधित होते हैं। उदाहरणार्थ-विज्ञान प्रगति, ड्रीम 2047, आजकल, आर्यकल्प, लेखन, समयांतर, फिलहाल, योजना, कुरुक्षेत्र, प्रथम प्रवक्ता, समकालीन तीसरी दुनिया, समकालीन जनमत, फ्रंटलाइन इत्यादि। ये पत्रिकाएँ तकनीकी प्रयोग और साज-सज्जा के नाम पर पृष्ठों का अनावश्यक रंगरोगन करने से प्रायः बचती हैं। इनकी संपादकीय नीति और दृष्टि में पाठक के व्यक्तिव का मौलिक विकास प्राथमिक होता है। ये पत्रिकाएं सामान्यतः निजी दृढ़ता और संकल्पशक्ति के सहारे संचालित होती हैं या फिर सरकारी अनुदान के माध्यम से। इनकी प्रसार-संख्या कम होने के बावजूद इनमें पाठकीय निष्ठा जबर्दस्त होती है। वहीं व्यावसायिक पत्रिकाओं का लक्ष्य अधिकाधिक पाठकों को पत्रिका खरीदने के लिए प्रेरित/बाध्य करना है। इन पत्रिकाओं में परोसी जाने वाली सामग्री का मुख्य ध्येय पाठकों को रिझाना और उनके पाठकीय रुझान को उपभोक्ता आवश्यकता में तब्दील करना होता है। वे पाठक के मन में एक खास तरह की उत्तेजना/उद्दीपन पैदा करने की कोशिश करती हैं। उनकी सोच को बरगलाती हैं तथा आयातित संस्कृति के नाम पर परोसी जाने वाली अपसंस्कृति को उनके ऊपर थोपने का काम करती हैं।

और अंत में इन्द्रधनुष के हिस्से का सच
व्यावसायिक पत्र/पत्रिकाओं द्धारा अपनी लोकप्रियता और साख को भुनाना आमबात है। उनका दर्शन है-‘कलरफुल इमेज ग्रेटर दैन कंटेंट’। यह जानते हुए भी कि किसी बड़ी छवि(भौंडी, ग्लैमर्सयुक्त और रंग-बिरंगी) के प्रदर्शन मात्र से बड़ी चेतना को निर्मित कर सकना कदापि संभव नहीं है और न ही इन आभासी छवियों के माध्यम से जनसमाज और जनसमुदाय में आमूल बदलाव ला पाना आसान है। दरअसल, बाज़ारफेम इन समाचारपत्रों का अपना एक निश्चित ‘फार्मेट’ है। व्यावसायिक नीति और बाज़ारशासित उद्देश्य है। अतः इस तरह के अधिसंख्य पत्रों में संभाव्य चेतना और सम्यक दृष्टि का न होना एक कटु सचाई है। ये समाचारपत्र मंहगे और चमकीले कागजों पर छपते अवश्य हैं; लेकिन इनमें लोकमंगल की भावना सिफ़र है। जनसरोकार और जनचेतना से सम्बन्धित क्रियाशीलता लगभग शून्य है। यह महज़ पृष्ठीय आसमान में साज-सज्जा का इन्द्रधनुष गढ़ने का काम करते हैं जो एक दृश्य-प्रपंच मात्र है। फिर भी ये खरीदकर सर्वाधिक पढ़े जाने वाले समाचारपत्र हैं जो प्रायः पाठकीय विवेक और तर्कणा-शक्ति पर ग़लत ढंग से चोट करने में उस्ताद है। अशोभनीय चित्रों को सार्वजनिक तरीके से प्रस्तुत कर उसपर ये आमराय और आमसहमति बनाने की चेष्टा में जुटे दिखते हैं। प्रायः इस किस्म के पत्रों में संपादकीय दृष्टि को कम प्रबंधकीय पैमाने को अधिक वरीयता दिया जाता है। वस्तुतः ये समाचारपत्र समसामयिक मुद्दों, समस्याओं और संवेदनशील घटनाओं से पाठकों को सीधे जोड़ सकने में असफल है। वे पाठक को समाचारपत्रों के आकर्षक प्रस्तुति और बनाव-शृंगार के भव्य आवरण से बरगलाते हैं। एक खास किस्म के अतिरंजित आस्वाद को पैदा करते हैं। यह आस्वाद मानव-मन के भीतर सवाल, बेचैनी और संघर्ष की अदम्य इच्छा उत्पन्न करने के विपरीत उन्हें दबाते हैं। जैसा कि शुरू में ही कहा गया है कि समाचारपत्रों की प्रकाशन-नीति और संपादकीय-दृष्टि जनहित में आमोखास सभी के लिए समानधर्मा होने चाहिए। किन्तु आज बाज़ार की अंधड़ में मुनाफा की डफली बजाते उपर्युक्त समाचारपत्रों से ऐसी अपेक्षा बेमानी है। फिर भी कुछ समाचारपत्र आज भी पत्रकारिता के पुराने आदर्श पर न केवल खड़े हैं बल्कि तमाम झंझावतों को झेलते हुए इसी बाज़ार में जीवित हैं। सुबुद्ध पाठकों को ऐसे समाचारपत्रों से जोड़ना आज की सामाजिक-सांस्कृतिक जरूरत है। दो मत नहीं कि अपनी भारतीयता, सभ्यता, संस्कृति, संस्कार, सरोकार, विरासत और धरोहर को अमिट और अटूट बनाये रखने में समाचारपत्रों का अवदान अनुपम है। कुछ महत्त्वपूर्ण नामों की फेहरिस्त में पंडित युगोल किशोर शुक्ल, भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, बालमुकुन्द गुप्त, प्रताप नारायण मिश्र, बालकृष्ण भट्ट, दादाभाई नरौजी, महावीर प्रसाद द्विवेदी, गणेश शंकर विद्यार्थी, महामना मदन मोहन मालवीय, बाल गंगाधर तिलक, महात्मा गाँधी, प्रेमचन्द, बाबूराव विष्णु पराड़कर, माखनलाल चतुर्वेदी, धर्मवीर भारती, राहुल सांकृत्यायन, रघुवीर सहाय, अज्ञेय, कमलेश्वर, राजेन्द्र माथुर, प्रभाष जोशी जैसे अनगिनत साहित्यकार-पत्रकार रणबांकुरों का योगदान अतुलनीय तथा अविस्मरणीय है। पत्रकारिता के ये  सजग-साधक सामाजिक-सांस्कृतिक चेतना, ज़मीनी यथार्थ और युगबोध से गहरे संपृक्त रहे हैं। साथ ही, भारतीय संस्कृति के भीतर प्रगतिशील और अग्रगामी आधुनिकताबोध को सिरजने में इनकी भूमिका अग्रणी और अनुकरणीय है।
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हँसों, हँसो, जल्दी हँसो!

--- (मैं एक लिक्खाड़ आदमी हूँ, मेरी बात में आने से पहले अपनी विवेक-बुद्धि का प्रयोग अवश्य कर लें!-राजीव) एक अध्यापक हूँ। श्रम शब्द पर वि...