Saturday, July 30, 2011

सॉरी, ब्रेक टू बी जारी....,

'इस बार' ब्लॉग के मोडरेटर इन दिनों साथी ब्लोगरों के ब्लॉग को पढने में व्यस्त है..., सो अपनी बात फिर कभी; यदि जरूरत पड़ी तो.

Wednesday, July 20, 2011

Monday, July 18, 2011

भेंट


हे सावनी शक्ति, आप हो तो मैं हूँ। आपके आधार की भूमि पर ही मैं चेतस हँू। सजग और सचेत हँू। आपके भीतर काल की एकरसता से उपजी तनाव और बेचैनी जिसके प्रति संवेदनशील होना मेरा दायित्व सह धर्म है; को मैं समझता हँू ठीक-ठीक। लेकिन बात समझने से ही नहीं बनती है। बूझ लेने से ही समाधान नहीं हो जाता है। उसके लिए प्रयास की दिशा में निरंतर समय को बोना पड़ता है। पौधे में फलि लगने के बाद भी उसकी निगरानी आवश्यक है। अभिष्ट लक्ष्य हासिल कर लेने की जीद या कहें अभिलाषा मेरी खुद की गढ़ी हुई है; लेकिन मेरे इस स्वप्न में आप समानधर्मा सहभागिनी हैं जिसे मैं अपना ‘बेहतरीन’ भेंट करने का आकांक्षी हँू।

Friday, July 15, 2011

‘कवि के साथ’ काव्य-पाठ कार्यक्रम में अनुज लुगुन



Friday, July 15 · 7:00pm - 8:00pm
Location
गुलमोहर हॉल, इंडिया हैबिटैट सेंटर
लोधी रोड

'कवि के साथ' इंडिया हैबिटैट सेंटर द्वारा शुरू की जा रही काव्य-पाठ की कार्यक्रम- श्रृंखला है. इसका आयोजन हर दूसरे माह में होगा.इसमें हर बार हिंदी कविता की दो पीढ़ियां एक साथ मंच पर होंगी. पाठ के बाद श्रोता उपस्थित कवियों से सीधी बातचीत कर सकते हैं.

'कवि के साथ' के पहले आयोजन में
ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कवि कुँवर नारायण,
युवा कवि अरुण देव और अनुज लुगुन
...


अनुज लुगुन की कविताएँ

जूड़ा के फूल

छोड़ दो हमारी जमीन पर
अपनी भाषा की खेती करना
हमारी जूड़ाओं में
नहीं शोभते इसके फूल,
हमारी घनी
काली जुड़ाओं में शोभते हैं
जंगल के फूल
जंगली फूलों से ही
हमारी जुड़ाओं का सार है,
काले बादलों के बीच
पूर्णिमा की चाँद की तरह
ये मुस्काराते हैं।
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सबसे बड़ा आश्चर्य

सबसे बड़ा आश्चर्य वह नहीं
जिसे हम देखना चाहते हों
और देख नहीं पाते
जैसे देश के सबसे पिछड़े क्षेत्र में बैठकर
देखना चाहते हों
ताजमहल या एफिल टावर।

सबसे बड़ा आश्चर्य वह नहीं
जो अंतरिक्ष से भी दीख पड़े
तिनके की तरह ही सही
जैसे दिखाई पड़ता है चीन की दीवार।

सबसे बड़ा आश्चर्य यह नहीं
कि कितनी कलात्मकता से बनाया गया है
ताजमहल या एफिल टावर।

वे हाथ जो नंगे पैर
आवेशित धूप में
बालू, सीमेंट से काढ़ लेते हैं
ताजमहल की-सी कलात्मकता
या, खड़ी कर देते हैं चीन की दीवार
जिनके स्मरण में होता है काम के बाद
रात में उनकी पत्नियों के हाथों
तवे पर इठलाती रोटियाँ
जिसके स्वाद का सीधा संबंध
उनके पेट से होता है
सबसे बड़ा आश्चर्य होता है,
जिसको पाने की जद्दोजहद में
रोज ईंटों से दबती हैं अंगुलियाँ
और अंगुलियाँ हैं जो
ईंटों का शुक्रिया अदा करती हैं।

सबसे बड़ा आश्चर्य होता है रोटी
जो तरसी आँखों के सामने
दूसरों के हाथ खेलती दिखाई देती है
और आँखें केवल देखती रह जाती हैं
जिसके होने मात्र के आभास से
पृथ्वी सम लगती है ग्लोब की तरह
नहीं तो यहाँ भी काँटे हैं
खाईयाँ हैं, ऊबड़-खाबड़
बिल्कुल पृथ्वी की तरह।
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सुनो

माँ के वक्ष-सा
भू पर बिखरे पर्वत
आसमान को थाह लेने की आकांक्षा में
ज़मीन पर खड़े वृक्ष
धूप में सूखती नदी के गीले केश
पान कराते हैं जो दैनिक
चिड़ियों और जानवरों के आहट से संगीत
मूक खड़े कह रहे हैं
कातर दृष्टि से-

मत ललकारों हमें
मूक हैं किन्तु
अपना अधिकार मालूम है
जो भी प्रतिक्रिया होगी
वह प्रतिशोध नहीं
हक की लड़ाई होगी
क्यों तोड़ रहे हो
हमारे घरौन्दों को
हमें क्यों सिमटा कर रख देना चाहते हो
क्या ये जग केवल तुम्हारा है?

न तेरा न मेरा
हम दोनों का यह संसार
कुछ कहता हमसे मूक संसार।

संवेदन शून्य हम नहीं
हममें भी पीड़ा है
यह तुम्हारी विवेकता का प्रमाण नहीं
शान्त, निर्दोष को छेड़ते हो
हमें भी उन्मुक्त उड़ान की चाह है
जितना पर काटोगे
हम उतना ही फड़केंगे।

सुधार लो अपना चाल-चलन व्यवहार
हमारे साथ खुद भी मिट जाओगे
न हो जंग आर-पार
कुछ कहता हमसे मूक संसार।

परीक्षा उचित है किन्तु
अपनी सीमा में
हमारे धैर्य का बाँध जब टूटेगा
टूटेगा मानव तुमपर
टपदाओं का पहाड़
हाथ ऊपर उठेंगें
आँखें बन्द होंगी
किन्तु इस दिखावे से कुछ न होगा
पूजना हो तो
अपने अस्तित्व को पूजो
जो हमसे जुड़ा है।

बांट लें आपस में प्यार
दोनों का यह अधिकार
कुछ कहता हमसे मूक संसार।

Wednesday, July 13, 2011

मुंबई में बम-विस्फोट, 20 जानें गईं



मुंबई में इस वक्त हाई-अलर्ट है। लोगों से शांति बनाये रखने की अपील जारी है। मृतकों की संख्या को ले कर गलतबयानी न हो इसका जिम्मा मुंबई नियंत्रण कक्ष पर है। मुंबई कन्ट्रोल रुम से प्राप्त जानकारी के मुताबिक 20 लोगों की मौत हो चुकी है जबकि घायलों की संख्या 100 के ऊपर है। दुख और शोक जताने वालों में भारतीय राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल से ले कर पाकिस्तानी राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी तक गहरी संवेदना व्यक्त कर रहे हैं।

यह महज संयोग नहीं है कि 13 जुलाई को कसाब का 24वाँ जन्मदिन पड़ता है जो 26/11 मुंबई हमले का मुख्य अभियुक्त है। जन्मदिन की यह तारीख़ खून से सना हो; आतंकी हमलावर इस तथ्य को जानते थे। उन्होंने जानबूझकर इस दिन को चुना; ताकि भारतीय आवाम बौखलाए। लोकतांत्रिक सरकार जिसमें त्वरित निर्णय लेने की क्षमता का घोर अभाव है; ने कसाब मामले में हीला-हवाली की हद कर दी है। सरकार से ज्यादा चेतस दहशतगर्द हैं जो ताल ठोंक कर भारतीय सत्ता के सामने चुनौती खड़ी कर रहे हैं।

जिस मामले में काफी पहले फैसला सुनाया जाना चाहिए था; आज उस आतंकी को बंदीगृह में ऐशोआराम की ऐसी जिन्दगी बख़्शी जा रही है जिस पर सलाना खर्च का बजट करोड़ों में है। आज शाम पौने 7 बजे मुंबई के दादर कबूतरख़ाना, ओपेरा हाउस और ज़वेरी बाज़ार इलाके में बम विस्फोट हुए जिनमें जान-माल की भारी क्षति तो हुई ही; इसके अलावे मुंबई को भी दहशत के माहौल में नजरबंद कर दिया। इस वक्त मरहम के सारे शब्द बेमानी हैं। वर्णमालाओं के अर्थ निसार हैं। दरअसल, अचानक आतंकी गर्दो-गुब्बार से सन गई मुंबई की जिन्दगी अगले ही दिन से बिल्कुल पटरी पर आ जाएगी, कहना जल्दबाजी होगी। भूलना नहीं चाहिए कि भूख-प्यास रोज की जरूरत है, तो शांति-सुकून भी पल-पल कीमती है।

जो लोग इतिहास को याद रखते हैं या जो उसके भुक्तभोगी है; उनके लिए यह मंजर बेहद खौफनाक और त्रासदपूर्ण है। इस घड़ी अधिकांश लोग जनमाध्यमों पर निर्भर हैं। मीडिया ही एकमात्र विश्वस्त सूत्र है। सूचना-प्रदायक इन साधनों को काफी एहतियात बरतने की जरूरत है।

क्योंकि यह घटनाक्रम भारत के आंतरिक सम्प्रभुता और रक्षा-प्रणाली से सीधे जुड़ी हुई है। मुंबई ऐसे कई हौलनाक हमलों का साक्षी रहा है। देश की खुफिया एजेंसियाँ भले अपनी वाहवाही में सोलह-शृंगार करें; लेकिन आज उनकी तंत्रगत खामियाँ जगजाहिर हो चुकी है। भारतीय सुरक्षा-व्यवस्था में सेंधमारी करते हुए इस तरह के घटनाओं को अंजाम देना पूरे देश में कायम खुफिया-तंत्र की साख और उसकी विश्वसनीयता पर बट्टा लगाता है।

Sunday, July 10, 2011

प्रेमचन्द के गाँव लमही से लौटते हुए




रात को बारिश हुई थी, हल्की बूंदाबूंदी के साथ। सुबह में मौसम का तापमान बिना थर्मामीटर डाले जी को ठंडक पहुँचा रहा था। दिमाग में लगा दिशासूचक यंत्र हमें जल्द से जल्द उस ओर ले जाने को उत्सुक-उतावला था जो साहित्यिक दुनिया में सुपरिचित नाम है अर्थात आमोख़ास सभी जानते हैं-‘लमही’ को। कथाकार प्रेमचन्द का गाँव लमही कितनों को जानता है या किस-किस को जानता है? यह सवाल जरा टेढ़ा है।

5 अक्तूबर 1959 को लमही ग्राम में तत्कालिन राष्ट्रपति डॉ0 राजेन्द्र प्रसाद का आना हुआ था जिनके साथ में प्रदेश मुख्यमंत्री सम्पूर्णांनंद भी पधारे थे। इस मौके पर बंगभाषा के सिद्धहस्त साहित्यकार ताराशंकर जी वंद्योपाध्याय ने भी शिरक़त की थी। यह जानकारी प्रेमचन्द स्मारक भवन में प्रवेश करने पर मिलती है। नागिरी प्रचारिणी सभा द्वारा विज्ञापित इस सूचना में यह भी जिक्र है कि यह आयोजन गोविन्द वल्लभ पंत और हजारी प्रसाद द्विवेदी की अगुवाई में संपन्न हुआ था जिसका उद्देश्य लमही ग्राम में एक ऐसे स्मारक भवन का शिलान्यास करना था जो इस कलम के सिपाही की सच्ची श्रद्धाजंलि हो। बाद के वसीयतदारों ने इस गाँव को क्या-क्या भेंट दी है; यह नजदीक से देखना-जानना रौंगटे खड़े करने के माफिक है।


भूमण्डलीकरण की आँधी ने लमही के वातावरण को विषाक्त कर दिया है। गाँव की जमीन पर पूँजीदारों का कब्जा है। नए-नए प्लॉटों की शतरंज बिछाई जा रही है। बाप-दादों की जमीन को बचाकर रखे लोग अपनी झोपड़पट्टी में निढाल और बेसुध पड़े हैं। नशे में डूबोकर गरीब-गुरबा की जमीन-ज़ायदाद हड़प लेना आज एक नई रवायत है। गाँव में ही शराब की भट्ठी खुल गई है जो भर-भर पाउच दारू पिलाकर भोले-भाले गरीबों को उनके पुरखों की ज़मीन से बेदखल करने पर उतारू है। गाँव को बाहर से आये लोग जोत रहे हैं। किसी समय गुलज़ार रहने वाले खेत-खलिहान और बाग-बगीचे आज विरान हैं।


उस जगह दो-चार पेड़ हैं; कटी हुई बँसवारी हैं; बाबा भोलेनाथ का आधुनिक पेन्ट से पुता हुआ मन्दिर है। ईश्वरीय महिमा को बखानते दोहा-चौपाई हैं। ये सारी चीजें मुंशी प्रेमचन्द के पैदाइशी घर की गोद में हैं जिससे लगी सड़क लमही से ऐढ़े की ओर जाती है। इस सड़क की जद में बनवारीपुर, फ़कीरपुर, आदमपुर आदि गाँव हैं। धूल-धक्कड़ से सने इस रास्ते की कहानी अजीब है। मरम्मत के बाद दुरुस्त हुई पक्की सड़क प्रेमचन्द के पैतृक घर के सामने अचानक अर्द्धविराम लेती हुई दिखाई पड़ती है। दूसरे गाँव के राहगीर कहते हैं कि यदि मुंशी प्रेमचन्द का जन्म हमारे गाँव में हुआ होता, तो सरकार यह सड़क वहाँ तक जरूर चकाचक बनवाती।

गाँव में थोड़ी दूर टहरिए, तो सड़क किनारे ही अरविन्द जनरल एण्ड प्रोविजन स्टोर है। दुकान में पेप्सी, सेवन-अप, डियू, मैरिन्डा और स्लाइश के नए पेय-संस्करण है। यहाँ एक्वाफाइन वाटर भी मिलता है। ग़नीमत है बिजली कम जाती है, इसलिए इनकी बिक्री को ले कर टोटा नहीं है। दो मिनट की बैठकी में हम यह जान लेते हैं कि टेलीविज़न पर क्या कुछ चल रहा है। धारावाहिकों के नाम और उनके पात्र के बारे में उस घर के सभी लोग जानते हैं। पात्रों के नाम तो जुबानी याद है-मानव, अर्चना, अहम, राधिका, गोपी, कोकिला, नव्या, अनंत आदि-आदि। सरस्वती शिक्षा निकेतन में पढ़ने वाली 11वीं कक्षा की अंकिता पूछने पर बताती हैं-‘जी-टीवी पर चलने वाले सीरियलों में पवित्र रिश्ता और छोटी बहू पसंद है। स्टार प्लस पर साथिया धारावाहिक भी रोज देखती हैं।’ प्रेमचन्द के गाँव की अंकिता ने मुंशी प्रेमचन्द के साहित्य को भी पढ़ा है। गोदान का नाम लेती हुई वह बताती है कि निर्मला उपन्यास का टेलीविजन रूपांतरण उसने दूरदर्शन पर देखा है। मंत्र कहानी का मंचन भी देख चुकी है जिसे वाराणसी स्थित सनबीम कॉन्वेन्ट स्कूल के बच्चों ने मंचित किया था। इससे पहले हमारी बातचीत विद्या से हुई थी जो सुधाकर महिला कॉलेज से स्नातक कर रही है। बोलने में तेजतर्रार विद्या कथाकार प्रेमचन्द के विषय में पूछने पर ज्यादा बोल नहीं पाती है। वह कहती है-प्रेमचन्द की कहानियों या पात्रों का नाम भले ही उसे तत्काल ध्यान न आ रहा हो; लेकिन उसने प्रेमचन्द को पढ़ा अवश्य है।

लोक-जीवन के चितेरे कथाकार प्रेमचन्द के गाँव की यह हालत देख हमें प्रेमचन्द की कहानी ‘मैकू’ की याद बरबस हो आती है। लेकिन, अब और तब में भारी अंतर है। चेहरे बदल गए हैं। चरित्र भी उलट गए हैं। मैंकू की जगह हमारी भेंट शेख सुलेमान उर्फ नक्कू से होती है जो पुलिस को गरियाता है। अपनी बहादुरी के किस्से सुनाते हुए चक्कू दिखाता है। एक सांस में मकदूम शाह दरगाह में स्थित 6 मजारों के बारे में जानकारी देता है। दरगाह से बाहर आते वक्त बाबा कमालुदिन सईद उर्फ कमाल पण्डित के बारे में बताता है। थोड़ी दूर पर पहुँच वह सड़क के समीप लगे मुर्दा-हैण्डपम्प को देख सहसा कह उठता है-‘आप ताड़ी पी सकते हो आसानी से, पानी के लिए तो कसरत ही उपाय है।’

हँसी-हँसी में अंदरूनी टीस व्यक्त कर चुका नक्कू गाँव में पानी की दिक्कतदारी को ले कर रोता है। अचानक बाँह पकड़ता है। खुदे हुए तालाबों की ओर ले जाता है जो बेहद गहरी खुदी हुई हैं। हाथ से इशारा कर जो हमें इशारे में बताता है; उसका भाव है-‘बिन पानी सब सून’। नक्कू यही नहीं रूकता है। वह खेतों की दुर्दशा को अपनी भाषा में वाणी देता है-‘बहिनी ना भईया, खेत चर गई गईया।’ 87 वर्षीय नक्कू के चेहरे पर उभरे ये दिली कसक इतने तीक्ष्ण और धारदार हैं कि वे हमें अंदर तक वेध डालते हैं।

भूमण्डलीकरण की फांस प्रेमचन्द के किसानों के गले में किस कदर कस चुकी है? इसकी शिद्दत से पड़ताल करने पर ही हम जान पाते हैं कि शहरीकरण की वेष में आए इस अजगरी दानव ने गाँवों के मूल बुनियाद को ही ‘हाइजैक’ कर लिया है। लमही का पानीदार समाज इस घड़ी पानी के संकट से जूझ रहा है। गाँव में 8-10 नलकूप हैं, सभी मरे पड़े हैं। एक की बनवाई हजार रुपए से ऊपर बैठती है। आपसी चन्दे की रकम से वे इन्हें कभी का बनवा लेते, लेकिन पानी का ‘लेयर’ इतना भाग गया है कि वे चाहकर भी कुछ नहीं कर सकते हैं। जिन घरों में ‘समरसेबुल पम्प’ लगे हैं; वे ही इस घड़ी भाग्य-विधाता हैं। सरकारी योजना के अन्तर्गत साढे़ आठ लाख की रकम से लमही सरोवर का सौन्दर्यीकरण किया गया है जो गाँव वालों की निगाह में गोईंठा में घी सुखाने जैसा है। सरोवर से सटे हुए एक हाई-मास्ट लगा है जिसका सिर्फ ऊँचा-लम्बा कद ही देखने योग्य है, रोशनी बिल्कुल नदारद। पानी के संकट पर बात करते हुए अनुराग पान भण्डार और टी स्टॉल के विजय पटेल बताते हैं कि-‘सरकार 160 फिट से नीचे ‘बोरिंग’ कराती नहीं; और पानी है कि एक बार जो नीचे गई, तो फिर आती नहीं। अब कंठ झुराये या मवेशी-मवाल पानी की खातिर जमीन पर बेतरह लोटें; आदमी कर्म भर ही कोशिश करेगा न! बाद बाकी अल्लाह-दईया या ईश्वर को जो चाहे सो मंजूर।’

प्रकट भाव में लोग भले कुछ नहीं कहना चाहते हों; लेकिन उनकी आँखें सीधी सवाल करती है-प्रेमचन्द के गाँव में अब प्रेमचन्द के स्वप्न नहीं उनके पात्र बसते हैं। नए किस्म के ठाकुर और जमींदार। घीसू, माधव, हल्कू, धनिया और होरी भी। लमही में बीतते लम्हें हमें एक के बाद एक कई पात्रों से परिचय करा रहे हैं। नीम्बू की चाय पीते हुए हम उन चेहरों को निहार रहे हैं जो हमें इस आस से घूर रहे हैं कि बबुआन लोग(पढ़े-लिखे लोग) कुछ करेंगे; जबकि हम अन्दर से हिचकी महसूस कर रहे हैं। पानी की आस में कठोर हो गई जमीन पैदावार के नाम पर एकफसली गेहूँ देती है। धान को हिक भर पानी चाहिए। कई सालों से बरसात झमाझम हो कहाँ रही है? पर्याप्त पानी न मिलने से किसानों को भारी नुकसान उठाना पड़ता है; इसलिए खेतों में धान की रोपाई लगभग रोक दी गई है।

उनका एक सवाल यह भी है कि मुंशी प्रेमचन्द की 125 वीं जयंती के सुअवसर पर पूर्व मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव आये थे। अमरवाणी की तरह घोषणाएँ की। ग्रामीणों से अनेकों योजनाओं की रूपरेखा के बारे में वादा किया। बाद बाकी नील-बट्टा-सन्नाटा। सरकार क्या गई, योजनाएँ अधर में लटकी रह गई। प्रेमचन्द शोध संस्थान समिति को मिले 2 करोड़ रुपए ने साहित्यिक जमात में उम्मीद की लकीर खींची थी। लोगों ने यह मान लिया था कि अब प्रेमचन्द के गाँव लमही के दिन बहुरेंगे। दूरगामी नीति के तहत कुछ ऐसे कार्य होंगे जिससे प्रेमचन्द के साहित्य-समाज को संबल मिलेगा। लोग मुंशी प्रेमचन्द को सही परिप्रेक्ष्य में समझने के लिए जरूरी शोध करेंगे। उनकी कृतियों को जन-मिलाप के बीच ले जाने के लिए सुनियोजित अभियान चलायेंगे। लेकिन शोध-संस्थान अभी भी कथित जमीन प्रकरण में उलझा है। बीएचयू हिन्दी विभाग के प्रो0विजय बहादुर सिंह जो कि प्रेमचन्द शोध संस्थान समिति के समन्वयक हैं; बताते हैं कि-‘राज्य सरकार के द्वारा जमीन केन्द्र को स्थांतरित न किए जाने की वजह से ही सारा कार्य अधर में लटका है।’ इस बारे में बनारस के कथाकार श्याम बिहारी श्यामल का कहना है कि-‘राजनीति में गाँधी के इस्तेमाल की तरह राजनेता प्रेमचन्द का भी इस्तेमाल करते हैं। प्रेमचन्द के साहित्य से किसी को कोई मतलब नहीं। सरकार को कोई मुकम्मल व्यवस्था करनी चाहिए। प्रेमचन्द साहित्य के प्रतिमान हैं।’

इस बारे में जब हमने कवि ज्ञानेन्द्रपति की राय जाननी चाही, तो उन्होंने अपनी दिली उद्गार व्यक्त करते हुए कहा कि-‘रविन्द्रनाथ ठाकुर के बाद प्रेमचन्द भारत के देश-विदेश में सर्वाधिक आद्रिक साहित्यकार हैं। उनकी जन्मस्थली लमही में उनके गौरव के अनुकूल स्मारक का निर्माण एक ज़माने से प्रतिक्षित है। आधे-अधूरे मन से किए जाने वाले काम जल्द पूरे नहीं होते। स्मारक अद्रेय बनें, लेकिन उचित है कि हिन्दी और उर्दू दोनों सहोदरा भाषाओं के कथा साहित्य के आदि-पुरुष के रूप में मान्य प्रेमचन्द के निमित निर्मित स्मारक-सह-शोध केन्द्र स्थापत्य के धरातल पर भी हमारी साझी जीवन-संस्कृति को रूपायित करे। वैसा कायदे से हो पाए, तो काशी का केवल धार्मिक नगरी से अधिक महत्त्वपूर्ण सांस्कृतिक नगरी का स्वरूप मूर्त्त हो जिसका उजागर होना हमारी सामाजिक जिन्दगी को भी एक अलग ढंग से रौशन करेगा।’

यही बात सुरेश चन्द्र दूबे जो कि मुंशी प्रेमचन्द स्मारक के संरक्षणकर्ता हैं और प्रेमचन्द मेमोरियल ट्रस्ट के अध्यक्ष हैं; कहते हैं-‘पहले अनाज की खेती होती थी। अब पैसे की खेती होती है। सबकुछ किसानों के खिलाफ है। सरकार, हवा-पानी और प्रकृति सबकुछ खि़लाफ है किसान के। प्रेमचन्द का पात्र सूरदास अन्धा था। उसे मारा-पीटा गया और उसका घर जला दिया गया। अब का किसान आँख वाला है; जिसे इतनी यातना दी जा रही है कि वह आत्महत्या कर ले रहा है। यह समय प्रेमचन्द के समय से भी खतरनाक है। लोग जयंती के मौके पर जुटते हैं। कई प्रकार से फौरी मदद की बात कहते हैं। लमही को हेरिटेज गाँव बनाने के बारे में कई सालों से सुन रहा हँू जो महज घोषणाओं के नाम पर छलावा है। मुंशी प्रेमचन्द स्मारक का समरसेबुल ख़राब है, लेकिन उसके मरम्मत के लिए कोई आर्थिक पहल नहीं की जा रही है।’

सुरेश चन्द्र दूबे के साथ मुंशी प्रेमचन्द स्मारक-परिसर में बैठने के बाद लगता है जैसे किसी स्वचालित पुस्तक का पाठ सुन रहे हैं। वह बतलाते हैं कि प्रेमचन्द की कहानियाँ ही सही अर्थों में भारतीयता की पहचान हैं, पर्याय हैं। प्रेमचन्द कहानीकार बाद में थे; पहले वे खुद कहानी थे। उनकी सारी कहानियाँ उनके रूह से निकली है। स्मारक-परिसर में ही सुरेश जी ने एक पुस्तकालय खोल रखी है। पढ़ने के इच्छुक लोगों को वह निःशुल्क पढ़ने के लिए प्रेरित करते हैं। सुरेश चन्द्र जी हिन्दुस्तानी अर्थात हिन्दी-उर्दू ज़बान के हिमायती हैं। वे लमही में ‘प्रेमचन्द उर्दू शिक्षण संस्थान’ के अध्यक्ष हैं। इस संस्थान की सबसे बड़ी खूबी के बारे में वे बताते हैं कि हिन्दू बच्चे उसी भाव से उर्दू पढ़ने आते हैं जिस भाव से मुस्लिम। वे कविता के लहजे में कहते हैं-‘दिल है कि भावों से भरा है/घर है कि अभावों से भरा है।’

इस घड़ी लमही ग्राम में बैठे हुए हम लोग समय की ओर ताकते हैं। धूप सीधी से आड़ी-तिरछी हो चली है। कुछ ही मिनटों में 4 बजेंगे। बातचीत में ऐसे मशगूल हुए कि भूख की परवाह ही नहीं रही। बस, हम पानी पीते हुए बातों में मशगूल रह गए। उस समय हमारी बेचैनी पानी की जबर्दस्त किल्लत को ले कर अधिक थी। सरकार के कागजी ठिकानों पर ‘लमही’ का नाम निर्मल ग्राम के रूप में अंकित है। लेकिन यहाँ कुछ भी नार्मल नहीं है। गाँव में शिक्षा का स्तर संतोषजनक नहीं है। प्रेमचन्द स्मारक से सटे हुए ही प्रेमचन्द शिक्षण संस्थान है जिसे यूपी बोर्ड से मान्यता मिली हुई है; इस घड़ी बंद है।
लमही में ही प्राइवेट प्रैक्टिसनर डॉ0 आन्नद कुमार कहते हैं-‘आज अगर प्रेमचन्द जिन्दा होते, तो उनको हार्ट अटैक हो जाता। दूसरे गाँव की छोड़िए इस गाँव के लोग ही नहीं जानते हैं कि मुंशी प्रेमचन्द कौन थे? साहित्य से यहाँ के लोग दूर हैं। जबकि शहर के लोग प्रेमचन्द के कथा-कहानी और उपन्यास पर डिग्री धारण कर रहे हैं। असल में यहाँ के लोगों की समस्या बीहड़ है। रोजगार के नाम पर औना-पौना मजूरी है। ऐसे जिन्दगी जीने वालों से आप क्या साहित्य की बात करेंगे? उनके लिए तो यह महज लिखुआ-पढुआ बतरस है।’ लगे हाथ एक दूसरे सज्जन कह जाते हैं-‘जिस कथाकार को दलितों का देवता कहा गया है। उसकी सुध सुश्री मुख्यमंत्री खुद क्यों नहीं ले रही हैं जबकि वह तो दलितों की सर्वमान्य नेता हैं?’

लमही के निवासी सटीक विश्लेषण करते हैं। क्या यह वही गाँव है जहाँ कथाकार प्रेमचन्द का जन्म 31 जुलाई 1980 को हुआ और जिन्हें लोग हरिजन, दलित और पिछड़े वर्ग का मसीहा मानते हैं। ऐसे में क्या गरीब-गुरबों की नेता कही जानेवाली प्रदेश मुख्यमंत्री मायावती को यहाँ नहीं आना चाहिए था? कथाकार श्योराज सिंह बेचैन के शब्दों में कहें, तो-‘प्रेमचन्द भले हरिजन एवं दलितों के साथ पूर्ण न्याय नहीं कर सके हों लेकिन उस ज़माने में वही एकमात्र विकल्प थे जिन्होंने सामाजिक-सांस्कृतिक धरातल पर इस वर्ग की पीड़ा, शोषण और जातिगत त्रासदी को स्वर दिया। उन्हें अपने हक की प्रतिकार के लिए मानसिक संचेतना दी।’ कहानी ‘हिंसा परमो धर्मः’ में प्रेमचन्द अपने पात्र का पाठक से जिस रूप में शिनाख़्त कराते हैं; वह कहनशैली बेमिसाल है-‘मुमकिन न था कि किसी गरीब पर अत्याचार होते देखे और चुप रह जाए। फिर चाहे कोई उसे मार ही डाले, वह हिमायत करने से बाज नहीं आता था।’ प्रेमचन्द के लेखन का कैनवास बड़ा है। दृष्टि सूक्ष्म और अत्यंत गहरी। वे अपने देशकाल से गहरे संपृक्त होने की वजह से सामान्य भाषाशैली में तल्ख़ बात भी सीधी ज़बान में आसानी से कह ले गए। कथाकार श्योराज सिंह बेचैन आगे कहते हैं-‘प्रेमचन्द के ज़माने में लमही से ही स्वामी अच्यूतानंद दलितों का अख़बार ‘आदि हिन्दू’ निकाल रहे थे। स्वामी जी डॉ0 आम्बेदकर के काफी नजदीक थे।’

बातचीत के दरम्यान ही यह पता चलता है कि गाँव के जुझारू लड़कों ने मिलकर एक मंडली बनाई है-युवा नेहरू मण्डली। इस मण्डली में शामिल अधिकांश लड़के 20 से 30 वर्ष की उम्र के हैं। इस मण्डली के अध्यक्ष सूर्यबली पटेल बताते हैं कि अभी ज्यादा दिन नहीं हुए इस मण्डली को गठित हुए। गाँव के ही अरविन्द कुमार राजभर को सचिव बनाया गया है। वही इसके परिकल्पनाकार भी हैं। सामूहिक साफ-सफाई का कार्य सबलोग आपस में मिलजुल कर करते हैं। गाँव के बच्चों में शिक्षा के प्रति रुझान है, लेकिन जागरूकता कम है। इसे ले कर वे सामाजिक-अभियान छेड़ना चाहते हैं। सामाजिक-सांस्कृतिक मौके पर बिना बुलाये ही मदद करने के लिए पहुँच जाते हैं। प्रेमचन्द द्वार के समीप प्याऊ लगाया गया है, ताकि राहगीर अपनी प्यास बुझा सके। बातचीत करते युवाओं में उत्साह का ग्राफ उच्चतम था। उन्होंने बताया कि वैसे तो बहुत कुछ करने के लिए सोच रखा है; लेकिन साथ में कोई फंड या निजी अनुदान न होने की वजह से वे अपनी सीमाओं का विस्तार कर पाने में असमर्थ हैं। फिर भी गाँव में इस मण्डली ने लोगों के बीच प्रेम-व्यवहार का जो धागा बुना है; उससे लमही ग्राम के निर्मल मन की तसदीक आसानी से की जा सकती है। गाँव के लड़कों ने बातचीत के दौरान ही हमें दशहरा के समय होने वाले रामलीला के बारे में बताया। उनका कहना था कि लमही गाँव को उस घड़ी और भी करीब से देखा-परखा जा सकता है। रामलीला के दिनों में मेले की रौनक और बहार रहती है। दुर्गापूजा में दशमी के रोज जबर्दस्त मेला लगता है। गाँव को खूब सजाया जाता है। लोग जरूरी कारज छोड़कर उस रोज मेला घूमने आते हैं। यह गाँव अभाव और अकालग्रस्त है, लेकिन इंसानी मामलों में कोई जोड़ नहीं है। सभी एक-दूसरे की सदैव मदद करने के लिए तैयार रहते हैं।

अब हम लौटना चाहते थे। लमही की हाल-बयानी पन्ने पर दर्ज़ करने के लिए। लौटते वक्त लमही के मुख्य द्वार से सामना हुआ जिसके भीतर घुसते ही दोनों तरफ पार्क बने हुए दिखें। पार्क में छाँह कम है, लेकिन सजावटी पौधे अधिक। आज़मगढ़ जाने वाले मुख्य मार्ग पर बनारस से करीब 5 मील की दूरी पर यह मुख्य द्वार अवस्थित है। निर्जीव शक्ल में स्थापित मूर्तियाँ जो प्रेमचन्द के कहानियों के पात्रों पर रुपायित थे; द्वार के दोनों ओर लगे हुए थें।
वहाँ से काशी पहुँचने के लिए पाण्डेयपुर गोलम्बर तक जाना काफी मशक्कत भरा कार्य था, क्योंकि सड़क के बीचोंबीच एक टैग लटका मिला-‘निर्माण कार्य जारी है।’ निर्माण की यह अफलातून-संस्कृति(बेढंगा बदलाव) कई सांस्कृतिक संकेतों, प्रतीकों एवं सूत्रों को कैसे हम से छीन ले रही है; इसका गवाह है-पाण्डेयपुर चौराहा जहाँ लगी कथा-सम्राट मुंशी प्रेमचन्द की प्रतिमा अब नदारद है। जिस जगह को देखने के साथ ही यह अन्दाज हो जाता था कि अब मुंशी प्रेमचन्द की ज़मीन हमसे कितने फ़र्लांग दूर हैं? आज उसकी जगह पर फ्लाईओवर के ‘हाथीपाँव’ मौजूद हैं। भौतिक बदलाव आदमी के आन्तरिक भूगोल को कितना बदल देता है; इसको हम साफ़ महसूस कर रहे थे? यही नहीं, कालजयी रचनाओं को सिरजने वाले मुंशी प्रेमचन्द के गाँव लमही से लौटते हुए और भी बहुत-सी चीजें हमें मथ रही थी। हम खिन्न अधिक थे, प्रसन्नचित्त कम। वहाँ के लोगों ने हमसे जिस अपनापा और आत्मीयता के साथ बातचीत की थी; हम उसके मुरीद अवश्य थे। लेकिन हमारी स्मृति-पोटली में कई ऐसी स्मृतियाँ भी थीं जो दुखदायी और मन को पीर देने वाली थीं।

कथा-सम्राट मुंशी प्रेमचन्द का गाँव पानी की समस्या से बेहाल है; खेत-ज़मीन बदहाल है; खास अवसरों पर आयोजित साहित्यिक-सांस्कृतिक कार्यक्रम भी महज़ तारीख़ों की खूंटी पर टंगे हैं, लेकिन बाद बाकी लमही की सुध लेने की फिक्र कहाँ किसी को है? सुनने को मिला कि विश्वभर के लोग वहाँ मुंशी प्रेमचन्द की जन्मस्थली का दर्शन करने पहुँचते हैं; लेकिन उनके रहाव-ठहराव के लिए कोई प्रबंध नहीं है। यानी वहाँ जाने वाले अपने लौटने की बोरिया-बिस्तर पहले से ही तय कर ले जाते हैं। हम भी लौट रहे थे; अपनी दुनिया में; अपनी भाषा में। हम लौट रहे थे; उन शब्दों के अर्थ और भाव-बिम्ब में जिसे बनारस के युवा कवि रामाज्ञा शशिधर की कविता ‘खेत’ साफ़ जबान में हमारे समय, समाज, संस्कृति और देशकाल-परिवेश की शिनाख़्त करती हुई दिखाई पड़ती है; उन्हें सार्थक और समर्थ आवाज़ देती है-‘खेत से आते हैं फाँसी के धागे/खेत से आती है सल्फास की टिकिया/खेत से आते हैं श्रद्धांजलि के फूल/खेत से आता है सफेद कफ़न/खेत से सिर्फ रोटी नहीं आती।’

Thursday, July 7, 2011

लोक-चितेरा फिल्मकार मणि कौल और बॉलीवुड


क्या फिल्म सिर्फ कथा आधारित अभिनय एवं प्रदर्शन का साधन भर है? क्या फिल्म शहरी-संस्कृति और उसके भौड़े भेड़चाल का नुमांइदा भर है? क्या फिल्मी-संसार अर्थात बॉलीवुड महज एक समर्थं प्लेटफार्म भर है जहाँ से अकूत धन ‘मैजिक रोल’ की तरह रातोंरात बनाया जा सकता है?

गोया! फिल्म यथार्थ में क्या है; इसे लोक-चितेरा निर्देशक मणि कौल ने बखूबी समझा। इस घड़ी उनके निधन पर फौरी श्रद्धांजलि देने वालों का टोटा नहीं है, किंतु आज जरूरत है उनके काम की टोह की; असली मूल्यांकन की, देशकाल और समय सापेक्ष वस्तुपरक विश्लेषण की।

ऐसा इसलिए जरूरी है क्योंकि परदे पर लोक-परिन्दे उतारने का ‘रिस्क’ लिया था मणि कौल ने। ऐसे परिन्दे जिनके पैर ही पर थे जो आसमान में नहीं ज़मीन पर ज्यादा दृढ़ता से टिकते थे। फिल्म ‘आषाढ़ का एक दिन’, ‘नौकर की कमीज़’, ‘दुविधा’, ‘घासीराम कोतवाल’, ‘सतह से उठता आदमी’, ‘इडियट’, ‘सिद्धेश्वरी’ जैसी फिल्में जो रंग उभारती-उकेरती है उसमें सोलह-आना भारतीयता का पुट है। ये फिल्में भारतीय सिनेमा में बढ़ती विदेशी सूट, साइट और लोकेशन की अपसंस्कृति को आईना दिखाती हैं; साथ ही सच का लकीर पकड़ दिर्घायु होने की कामना करती हैं।

वास्तव में मंजे और सिद्ध निर्देशक के रूप में मणि कौल भारतीय सिनेमा में एक नवीन लहर के प्रणेता थे। बाज़ार-वर्चस्व के चलन को ख़ारिज करने वाले मणि कौल अपनी फिल्मों के लिए जितना भारत में नहीं जाने-सराहे गए, उससे कहीं अधिक उनके कद्रदान विदेशी धरती पर थे। ऐसे शख़्सियत की जिन्दगी भर की कमाई को अंजुरी भर श्रद्धांजलि में समेटने से होना-हवाना कुछ नहीं है सिवाय औपचारिक रस्म-अदायगी के। अतः उनके द्वारा फिल्मांकित फिल्मों के कथावस्तु, संवाद-योजना, दृश्य-बिम्बों और अभिनीत चरित्रों के अभिव्यक्ति-विधानों पर थोड़ा रूककर सोचने-विचारने तथ बहस-मुबाहिसे की जरूरत है।

हँसों, हँसो, जल्दी हँसो!

--- (मैं एक लिक्खाड़ आदमी हूँ, मेरी बात में आने से पहले अपनी विवेक-बुद्धि का प्रयोग अवश्य कर लें!-राजीव) एक अध्यापक हूँ। श्रम शब्द पर वि...