Friday, May 27, 2016

स्त्री


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मेरे भीतर एक स्त्री
बना रही है मेरे लिए नाश्ता
और मैं खाना चाह रहा हूँ उसका गोश्त

मेरे भीतर वही स्त्री
मेरे पस्त हौसले की मालिश कर रही है
और मैं उसकी पीठ पर करना चाहता हूँ प्रहार

मेरे भीतर की स्त्री ने
शायद भाँप ली है मेरे मर्दाना चालाकियों को
इसलिए वह भोजन में मिला रही है जहर की थोड़ी मात्रा
तेल में धीमी असर करने वाले जीवाणु
ताकि वह अपने स्त्रीत्व को मार सके

मैं आक्रांत, भयंकर भयभीत, आकुल, परेशान, हैरान, बेचैन, बदहवाश,
क्योंकि उस स्त्री के मरते ही मर जाएगा यह पूरा विश्व।

Monday, May 16, 2016

असम में हारी केन्द्र सरकार

झूठा-सच गल्प
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राजीव रंजन प्रसाद


असम विधानसभा चुनाव का परिणाम लगाए जा रहे कयास से विपरीत साबित हुआ है। एग्जिट पोल फेल हुए हैं और असम एक बार कांग्रेस सरकार के पाले में है। .....बीती रात भाजपा ने बैंड-बाजे की पूरी बंदोबस्त कर रखी थी। आतिश के ढेरों संसाधन जुटाए गए थे। आज वे सब के सब कूड़े के ढेर मालूम दे रहे हैं। यह विचार-मंथन करने की बात है कि भारतीय राजनीति की चुनावी भविष्यवाणी बाँचने वाले एग्जिट पोल कंपनियों को जनता ने ठेंगा दिखा दिया है। एक बात साफ हो गया है कि बिहार के बाद असम की राजनीति में आया यह गंभीर उलटफेर नरेन्द्र मोदी के ‘अच्छे दिन’ के दावे की पोल खोलकर रख देता है। 

इस पर विस्तारपूर्वक बातचीत और विश्लेषण के लिए वाक्पटु और लेखनसिद्ध विश्लेषकों की कमी नहीं है। उन्हें इस पर अपनी विस्तृत रिपोर्ट पेश करनी चाहिए। एक बात तो साफ हो चली है कि जनता ‘सेंटीमेंटल’ नहीं है। कोरी भावुकता की उम्र छोटी होती है और वह बीत चुकी है। दो वर्ष के उपरांत भी देश की स्थिति में गुणात्मक सुधार नहीं हुए हैं। प्रचार-सामग्री और मीडिया-प्रबंधकों के बूते थोकभाव तथ्यों, आँकड़ों, ग्राफों, ग्राफिक्सों, टेबुलों आदि को संचार-माध्यमों से उलीचती केन्द्र सरकार को अब ‘आत्ममंथन’ से आगे बढ़ ‘आत्मालोचना’ की जरूरत है। प्रधानमंत्री की सफेद दाढ़ी का सुफियाना रंगत और उनके भाव-भंगिमा के सहज आकर्षण दिन-ब-दिन डीम होते जा रहे हैं। उनके बोल की स्वाभाविक त्वरा एक अजीब संकोच से भरती जा रही है। यदि ऐसा ही सबकुछ चलता रहा, तो भारतीय राजनीति की कायापलट का स्वप्न देखने वाले लोग और खासकर नवशिक्षित युवा पीढ़ी लकवाग्रस्त हो जाएगी। 

नरेन्द्र मोदी राजनीतिक में जबर्दस्त उभार के साथ तब आए, जब भारत में लोकतांत्रिक ढाँचा अविश्वसनीय ढंग से अप्रासंगिक हो चला था। कांग्रेस हिंदुस्तानी राष्ट्र के रीढ़ की हड्डी चबा चुकी थी, तो जनता के आत्मबल और मनोबल को आर्थिक उदारवाद की रखैलों ने कब्जिया लिया था। बीच में आई भाजपा नित राजग सरकार में अटल बिहारी वाजपेयी को छोड़ सारे नेता अपनी अक्षमता के जागीरदार थे। उनकी सोच दूरगामी नहीं थी क्योंकि उनकी राजनीतिक परवरिश और राजनीतिक समाजीकरण की प्रक्रिया खोखली रही थी। ऐसे नेताओं को मुँह की खानी ही थी, सो 1999 में वे सूर्योदय की ढोल पीटते हुए आए और 2004 में दुबारा मंगलाचरण गाने से पूर्व ही ढेर हो गए। फिर आई कांग्रेस जो जनता के लिए नई नहीं थी। राहुल गाँधी एक नौजवान दिख रहा था जिस पर वे भरोसा जताने का विकल्प ले सकते थे। इसी आस में जनता ने कांग्रेस को दो लोकसभा शासनकाल का प्रत्यक्ष मौका दिया; लेकिन अंततः यह भी ढाक के तीन पात साबित हुए और राहुल गाँधी अपने व्यक्तित्व-व्यवहार और नेतृत्व आधारित कार्यशैली एवं प्रभावशीलता में लगातार पिटते चले गए। इसी समय आम आदमी पार्टी का अवतार हुआ जो एक ‘इंटेलेक्चुअल,स ट्रीटमेंट’ था लेकिन इसकी सतह किताबी होने के नाते इस पर लोकतंत्र की सच्ची इमारत खड़ी कर पाना संभव नहीं हो सका। अरविंद केजरीवाल का मीडिया फ्रेम मोहग्रस्तता और एकरेखीय नौकरशाही उजली टोपी और ग्रामीण मोफलर बाँधे रखने के बावजूद उनकी छवि को असंदिग्ध नहीं बना सकी। 

यह ध्यान रखना होगा कि चेतस जनता जादू के जद में नहीं आती। नरेन्द्र मोदी मंत्रमुग्धानी व्यक्तित्व के सहारे राजनीति में अप्रत्याशित बहुमत लाने में सफल रहे, लेकिन उनके कुनबागार(मंतरी-संतरी) यह भूल गए कि जनता जवाब माँगती है, जवाबदेही चाहती है। असम विधानसभा परिणाम ने खुले तौर पर केन्द्र सरकार को यह संदेश दिया है कि-‘उन्नीस का लोकसभा चुनाव सभी दलों का नस ढीला और कमर खोल देने वाला होगा।’....

Saturday, May 14, 2016

अँकवारी में घर-परिवार के भाखा

राजीव रंजन प्रसाद
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अन्तरराष्ट्रीय परिवार दिवस/15 मई

मम्मी हमार भोजपुरी बोलेली। बाकी सब लोगन हिंदी। हमनी के ऊँचा क्लास में पढ़े लिखे-लगलिं जा त इ बुझाइल कि ऊहाँ आपन भोजपुरी नाहीं चली। ओइजिग खाति हिंदी सीखेला पड़ी सबकन के। छोट-बड़ सब रेंगा-बेगारी स्कूल के मास्टर से हिंदी पढ़े शुरू कइलिं जा, त लागल जइसे कलेजा के बात बाहर नइखे आ पावत। एकदम दूजी किसिम के भाषा बुझात रहे हमनी के। बाद में धीरे-धीरे ऐसे सधाइल कि हिंदी त मजे से कह-सुन-पढ़-लिख लिहिंला पर भोजुपरी के खिसा खतम हो गइल एकदम से। पापा जहाँ रहत रहिं ऊहाँ त एगो आऊर नया समस्या रहे। ऊ इ कि एई जगिहा प मगही बोलल जात रहे। हम घरे जात रहिं त जानबूझ के मगही बोलत रहीं। मगही भाषा सुन के लोग कहत रहन जा-‘बाबू एइजिग ना रहेल का..., तबे न अइसे बोलताड़....’। आदमी के पहचान बोले मात्र से हो जाला। ई तखनिए बुझाइल। लगल कि भले हर जगह एकही नाक-मुँह-नाक-नक़्श के आदमी होखस जा पर बोले वाला भाषा सेम हो जरूरी नईखे।

पर चाहे जो हो, एक चीज त जरूर बुझात रहे हमरा कि ई हिंदी में ऊ बात, रस और मिठास नइखे जवन में हमनी के पलल-बढ़ल बानी जा। जवना भाषा में छुटपन में डाँट खाए के मिलल बा। बड़ा हो गइला के बाद जब ‘भाषा’ जैइसन शब्द के मास्टर अर्थ बतावे लगनन तब बुझाइल कि हमनी के जो बोलिला जा, कहिंला जा, बतियांईला जा; सब किताबन में बड़ी महत्त्व के बात है। मास्टर स्वर और व्यंजन में भेद बतावे शुरू कइलें, कवन ध्वनि कहंवा से निकलेला, हमनीं के इ सिखावेला शुरू कइलें त लागल कि एतना काम के चीज हमनी के एतना आसानी से कइसे जान गइनी जा।.....


समकालीन साहित्य का समाज

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राजीव रंजन प्रसाद
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Friday, May 13, 2016

यूपी चुनाव में 'सादे ड्रेस' में भाग ले राहुलीय कांग्रेस

जब हम अपनी आँख बंद कर लेते हैं, तो दूसरे लोग हमें प्रायः डूबो देते हैं
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राजीव रंजन प्रसाद 
युवा राजनीतिक मनोभाषाविश्लेषक







सारे चित्र गुगल से साभार
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राहुल गाँधी: मनोभाषिक रिपोर्ट 
  • विषय/मुद्दे के अनुरूप अथवा अपने कहे की संवेदनशीलता भाँपने की जगह  राहुल गाँधी अक्षरों का हिसाब लगाकर बोलते हैं
  • उनकी भाषा में लय और लहजा किसी भी तरह एक क्रम, संतुलन अथवा अन्विति में नहीं होते हैं 
  • जिस तरह दूध अपना रंग बदले बगैर ही दही में बदल जाता है; वैसे ही राहुल का भाषण सहज होते हुए भी नकारात्मक प्रभाव डालता है।
  • राहुल बोलते समय भीतर से बहुत तीव्र प्रतिक्रिया देते हैं जिसे वाणी के माध्यम से तरल/हल्का बनाने में सहज सम्प्रेषणीयता गायब हो जाती है
  • राहुल गाँधी के दिमाग में बाहरी बातों का दबाव इतना अधिक होता है कि वे अपनी बात कहने से चूक जाते हैं
  • राहुल गाँधी में परिणाम जानने की उत्तेजना और जल्दबाजी अधिक दिखाई देती है जिस कारण वे जनता से संवाद करने की जगह उनसे अपने बारे में समर्थन/सहमति माँगने लगते हैं 
  • राहुल गाँधी प्रायः अपनी ही देहभाषा के खिलाफ़ जाकर बोलते है जिससे उसकी प्रभावशीलता अधिक प्रभावी होती है
  • उनके भीतर की संकोचशीलता उन पर इस कदर हावी रहती है कि वे अपने व्यक्तित्व-व्यवहार के आकर्षण को खुद-ब-खुद कम कर डालते हैं
  • राहुल गाँधी के निर्णय में आत्मविश्वास की कमी देखने को मिलती है जिससे यह साफ झलकता है कि वे चारो तरफ से बुरी तरह मीडियावी प्रबंधन से घिरे हुए हैं 
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हार-जीत के अपने दाँव-पेंच होते हैं। असली योद्धा परिणाम की नहीं तैयारी के बारे में मुस्तैदी से सोचता है। राहुल जब इस घड़ी चारों तरफ से बुरी तरह आलोचना से घिरते जा रहे हैं; उन्हें 2019 के चुनाव-तैयारियों के बारे में सोचना चाहिए। उत्तर प्रदेश में वे और उनकी पार्टी पूरी सख्ती के साथ अपने को ‘माइनस’ कर चले। केन्द्र में उनका प्रतिद्वंद्वी बुरी तरह कमजोर है और वह विकल्पहीनता की स्थिति से गुजर रहा है। राहुल यदि उत्तर प्रदेश के चुनाव में नहीं कूदते हैं, तो यह सीधे भाजपा के लिए साख का सवाल हो जाएगा। कांग्रेस इस बचे समय में लोकसभा के लिए अपनी तैयारियों को मुस्तैद करे। अपनी कमियों को तलाशे और उनमें तत्काल सुधार करे। वह ‘शार्टकट’ से बचे तो ही आने वाले समय में उनकी छवि साफ-सुथरी हो सकती है। वह इन बीच के समय में युवा और कर्मठ युवाओं को अधिक मौका दे। 

भारत की राजनीति में कांग्रेस इसलिए भी सफल होगी कि नरेन्द्र मोदी और अरविन्द केजरीवाल दोनों सत्ता में लगभग विफल साबित हो चले हैं। राजनीति कई बार त्याग और समर्पण की माँग पहले कर बैठती है। इस बार ऐसी ही अग्निपरीक्षा है जिसमें कांग्रेस को सोच-समझ कर निर्णय लेने की आवश्यकता है। यूपी  चुनाव में अनाप-शनाप और शाही खर्च से सर्वथा बचने की जरूरत है। सबसे पहले राहुल गाँधी को चाहिए कि वे प्रशांत किशोर के पीआरगिरी के झाँसे में न आए। वे तत्काल प्रशांत किशोर का साथ छोड़ अपने पाँव के नीचे की ज़मीन बाँधे। अपनी युवा इकाइयों को मजबूत करें। युवा भारत के सपनों को समझने के लिए दौरा, गोष्ठी, यात्रा, सम्मिलन करे। वह हर वर्ग और देसी भूगोल के युवाओं के पास जाएँ। बिना किसी कटुता या कि राजनीतिक प्रपंच के युवा धड़कनों को सुने। वह आज से पहले के वर्षों में जितना कुछ कहते आए हैं, वे सब एक-एक कर करना शुरू कर दे। 

ध्यान रहे, देश का प्रधानमंत्री वोट से नहीं बनता बल्कि वह अपनी निष्ठाा, समर्पण, ईमानदारी, योग्यता और भीतरी सचाई के बल पर जनता के मन-मस्तिष्क पर राज करता है। राहुल औरों की तरह झूठे और गलाबाज नहीं हैं, यह साबित करने के लिए सचमुच की कार्रवाई करनी होगी। रचनात्मक कार्यक्रम करने होंगे। जनता की स्थिति-परिस्थिति का सही आकलन करते हुए दूरगामी योजना सिर्फ बनाने ही नहीं अपितु उन्हें क्रियान्वित भी करना होगा। गरीबी नाम लेने से नहीं मिटती बल्कि इसके लिए खुद गरीब होना होता है। स्वयं अभाव और तगहाली के दुःख-तकलीफ महसूस करने होते हैं। राहुल को अपने भीतर इस सोच को पैदा करने में अधिक समय लगा, अब उसे व्यावहारिक रूप देने की जरूरत है। राहुल खुद को ‘लिटमस पेपर’ नहीं बनाएँ, जनता अब ऐसा नेता चाहती है। आज की तारीख में भारतीय जनता राहुल गाँधी से बाएँ-दाएँ की जगह सामने देखने की गुजारिश कर रही है।

बहरहाल,  कांग्रेस दल को जितना नुकसान होना था, हो चुका। अब उसे पुरानी कहानी की चिंता छोड़ आगे बढ़ना है। राहुल से हाल के वर्षों में देश की आशाएँ बँधी हैं लेकिन खुद राहुल अपने से दूर होते चले गए हैं। आज भी वह देसी लहजे में बोलना नहीं सीख पाए हैं क्योंकि उन्हें सलाह देने वाले अंग्रेजी के फार्मूलेदार हैं। वह भारतीय बोली-वाणी के मुहावरे और व्यंजनाशक्ति को नहीं परख और साध पाए हैं जो राजनीति में नेतृत्व करने का पहला पाठ है। वे जो कहें उसमें समझाइश का स्वर हरग़िज नहीं रहना चाहिए। देश की हाल-स्थिति का ज्ञान तकनीकी भाषा अथवा कृत्रिम तरीके से वे जनता को न कराएँ। वह उसके भाव में घुलें और उसके मनोनुकूल अपनी छवि बनाकर ‘जनता का आदमी’ की तरह अपनी बात कहें। वे आक्रामक होने से पहले यह देख लें कि यह वार-प्रहार किए बगैर क्या विनम्रता के साथ किसी को मात नहीं दिया जा सकता है। आपसी नुक्ताचीनी से बेहतर है कि जनता की ओर से अपने को उनका प्रतिनिधि मानकर बोलें। कांग्रेस अपने इतिहास-वाचन की आदत से उबरे, यह भी जरूरी है। वह जनता को अपनेआप महसूस होन दे-‘फिल कांग्रेस’। राहुल गाँधी बार-बार अपना लुक बदलने से बाज आएँ। जनता के समक्ष भाषण देते समय वे अपने ऊपर पूरा नियंत्रण रखें। बोलते-बोलते एकबारगी चिल्लाने वाली उनकी आदत बचकानी हरकत है जो उनकी अधीरता को दर्शाता है। अतएव, वह सौम्य तरीके से और मधुर भाषा में जनता के सामने अपनी बात रखें। वह जिस क्षेत्र के लोगों के सामने बोलने जा रहे हैं वहाँ के लोगों के सोचावट एवं मानसिकता से अपने भाषण का मेल जरूरी कराएँ।.....

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Wednesday, May 11, 2016

ख़ामोशियों के खिलाफ़ : हे, अहो, अबे, अरे...कुछ भी कहो मेरे देश

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राजीव रंजन प्रसाद
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'पूरा देश पानी-पानी है,
और वातावरण चुप।' 

कुकुरमुते सरेआम उगते हैं, तो कईयों का दिल बाग-बाग हो उठता है। भीतर का दोगलापन कुलाँचे मारने लगती है। और दुष्ट आत्मा शिकार की टोह में खुलेआम घूमती हैं। हिंसा-हत्या-लूट-बलात्कार होने पर सरकारी तकरीरें मिमियाती हैं और अपनी औकात में सच के सिपाहसलार इतने निरीह और बेचारे होते हैं कि शाम ढलते ही मुर्गे बांग देने लगते हैं। आकाश में न्याय और निष्पक्षता के झंडे फहराने लगते हैं। देश जय-जय करता हुआ वामपंथी घर में घुस जाता है, जहाँ सभी दल दावत उड़ाते हैं।। 

यह कांग्रेस का बनाया हुआ भारत है। इस कांग्रेस का एक लाडला पीआरगिरी द्वारा प्रधानमंत्री बनने को आकुल है, पर उसकी अयोग्यता आड़े आ रही है। इस देश के एक प्रदेश का मुखिया नौजवान है और वह विचारधारा में समाजवादी है। देश का प्रधानमंत्री एक चाय वाला है जिसे बच्चे पाठ्यक्रम में चाव से पढ़ रहे हैं। यह वही प्रधानमंत्री है जो ‘अच्छे दिन’ का उद्घोषक रहा है। इसने एक अच्छा काम यह किया है कि हर जगह अक्षर में 'अच्छे दिन' आ जाने का फतवा पढ़ दिया है और जो इस बात की मुख़ालफ़त में तर्क देने आता है उसकी गला घोंट दी जा रही है। 

देश के सभी महान बौद्धिक चुप हैं क्योंकि उनके बोलते ही जेब के सोते सूख जाएँगे। आलीशान होटलों का बिल उन्हें ही भरना पड़ेगा। मलाईदारी और सामाजिक प्रतिष्ठा वाले ठिकानों पर उनकी नियुक्ति नहीं होगी। अतः सरलीकृत मार्ग अपनाते हुए इस वख़्त पूरा देश चुप है। सारा माज़रा सामने होते हुए भी टीवी स्क्रीन से गैरहाज़िर है। या फिर उसकी उपस्थिति इतनी क्षणिक है कि असर आने से पहले ख़त्म हो जाता है। इस घड़ी भारत की राजनीति विज्ञापनी दौर में है जो अंधराष्ट्रवाद को परोस रहा है। गीता और रामायण के चार श्लोक के बाद कुछ याद नहीं है, लेकिन वह भारतीय संस्कृति की रक्षा के लिए टूटे पड़े हैं। यह भाड़े के ट्टटू हैं जो जितना कम जानते हैं उतना ही अधिक देश के सामने बोलते हैं। यह इसलिए बोलते हैं कि उनका किया सामने न आए और उस पर चर्चा न हो। सिर्फ बोले हुए पर हंगामाखेज विडियोगिरी करना राजनीतिक प्रवक्ताओं का पेशा बन चुका है जिनके आगे पूरा देश ख़ामोश है।

अतः चावार्क दर्शन सब रट चुके हैं। जो मिले डकार लो। जितना मिले हथिया लो। जब तक मिले पा लो। जैसे मिले ले लो। और बिल्कुल न मिले तो छिन लो। श्रद्धा बस इतना करो कि जो कुछ कहा जाए वही बोलो। जैसे कहा जाए वैसे बोलो। जितना कहा जाए उतना बोलो। बिल्कुल न कहा जाए तो मुँह ही न खोलो। हर आदमी यथार्थवादी हो गया। काम भर मतलब निकालना सीख गया। पालिश-मालिश का चाटुकारी संस्कार जान गया। भाट-चारण की पैदाइश लोग सर्वगुणसंपन्न हैं। उनका ही दिन और उनकी ही रात है। बाकी सब शिव की बारात हैं।  जो मर जाए उसकी परवाह से फायदा नहीं है। ईमानदारी बरतने से चप्पल खाने को मिले तो भ्रष्टाचार बेज़ा क्यों है। सचाई सुनाने के लिए करने के लिए पाखंड एकमात्र सत्य है और मोक्षदायिनी कर्तव्य भी। लोग ऐसा मानने लगे हैं कि औरों के बारे में कविता कहो, कहानी कहो, कथा और उपन्यास कहो; लेकिन कभी सीधे न कहो फलांना चोर है, भ्रष्टाचारी है। जयराम कहो-सियाराम कहो। अल्लाह-पैगम्बर और खुदा गवाह कहो; लेकिन जिओ तो अपने मन की कर जिओ। आरोप, आलोचना आदि से बचो। पक्षधरता का एक ही और सीधा मतलब है कि यदि आप मतलबी नहीं, तो कुछ भी नहीं। अपनी स्वार्थ साधने के लिए हर तिकड़म करना ग़लत नहीं है; लेकिन दूसरों को नंगा अथवा किसी के झूठ का पर्दाफाश देशद्रोह से नीचे कुछ नहीं हो सकता है।

यह उत्तर शती की नई रवायत है जिससे टिराही करने पर राम नाम सत्य है। जिंदा रहने का एक ही शर्त है अपनी आँख-कान-नाक को आराम फ़रमाने दो और औरों के कहानुसार आचरण करो, चश्मदीद बनो।.....

(भारतीय राजनीति की आलोचनात्मक प्रसंग को सम्बोधित यह लम्बा आलेख जल्द ही प्रकाशित, प्रतीक्षा करें!-राजीव रंजन प्रसाद)





Wednesday, May 4, 2016

भाषा, मौन से पूर्व एवं पश्चात : एक मनोभाषिक अध्ययन


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राजीव रंजन प्रसाद
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शोध-पत्र

हमारे भीतर भी एक ‘स्मार्ट सिटी’ है। बाहर दिखतीं भिन्न-भिन्न प्रकार की इमारतों, मकानों, घरों, अट्टालिकाओं, बंगलो आदि की तरह उनका भी सजा-धजा रहवास है, रैन-बसेरा है। भाषा इनकी मल्लिका है जो मुखर होती है, तो ध्वनि-रूप में प्रकट होती है और नहीं तो बजती है मौन में अहर्निश। यह नाद-निनाद अखिल है और पूर्णतया सार्वभौम। मनीषी साहित्यकार अज्ञेय का कथन द्रष्टव्य है-‘‘भाषा तादात्मय स्थापित करने तथा आत्माभिव्यक्ति द्वारा संवाद स्थापित करने का माध्यम है। अपने को रखने का, पाठक से बतियाने का, संवाद स्थापित करने का एक क्षण ऐसा भी आता है, जहाँ भाषा पूरी तरह से चूक जाती है और उस क्षण केवल मौन ही पाठक एवं कवि, कलाकार एवं श्रोता तथा दर्शक के बीच माध्यम(संवाद) बन कर खड़ा हो उठता है। यह मौन न स्खलित है और न ही अर्थहीन।'' 

विचारमना अज्ञेय इसीलिए कहते हैं-‘मौन भी अभिव्यंजना है/जितना तुम्हारा सच है/उतना ही कहो।’’....


शेष फिर कभी,

हँसों, हँसो, जल्दी हँसो!

--- (मैं एक लिक्खाड़ आदमी हूँ, मेरी बात में आने से पहले अपनी विवेक-बुद्धि का प्रयोग अवश्य कर लें!-राजीव) एक अध्यापक हूँ। श्रम शब्द पर वि...