Sunday, September 14, 2014

क्यों और कैसे आते हैं हम आशंकाशास्त्रियों के झांसे में?

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14 सितम्बर, 2014
(प्रतिक्रिया आपकी सम्पादकीय ‘अजर-अमर है हमारी हिंदी’ पर)

आदरणीय शशि शेखर जी,
सादर-प्रणाम!

‘‘तम न होयगो दूर, विन ‘एक भाषा’ रवि उगे।
सुगम भाव भरपूर, ‘हिन्दी तासे उचित है।।...
सिखवहु निज सन्तान, हिन्दी सरल बनाय कै।
अरु सुविमल इतिहास, गौरव, युत निज देश को।।’’

यह सोरठा ‘उन्नति के मार्ग’ शीर्षक से पत्रिका ‘हिन्दी प्रदीप’ में जनवरी
1908 के अंक में प्रकाशित हुआ था। पण्डित बालकृष्ण भट्ट इस पत्रिका के
सम्पादक थे। आज का दिन उस दिन से महज नई सरकार माफ़िक 100 दिन आगे-पीछे
नहीं है; कि यह कहना उचित जान पड़े कि अभी देखने को बहुत कुछ हैं; नई
सरकार को थोड़ा और मौका तो देकर देखिए। यानी हमें हिन्दी को देखने की
दृष्टि बदलनी होगी। भारतेन्दु की ‘हतभागिनी’ हिन्दी को अपने देश में क्या
और कैसा गौरव प्राप्त है; इस पर विचार करना होगा। क्या सचमुच इस सोरठा
में लक्षित भाव का अर्थ-यथार्थ हमने पा लिया है? क्या बीते 105 वर्षों
में इतना कुछ बदल गया है कि आप अपनी भाषा को बोलते हुए हीनताबोध से न
भरें?

मैं बताता हूँ। उदाहरण देता हूँ। अक्तूबर, 2012 में ‘सर्जनात्मक लेखन एवं
पत्रकारिता’ विषय के लिए मेरा हिमाचलप्रदेश केन्द्रीय विश्वविद्यालय में
साक्षात्कार हुआ जिसमें मैं सहायक प्राध्यापक पद के लिए आवेदक था। कुल
जमा 18 आवेदकों में से उन्होंने एक को भी नहीं चुना। मुझे उन्होंने
टका-सा जवाब दिया था-‘आपकी हिन्दी में लेखनी बहुत अच्छी है; लेकिन हमें
अच्छी हिन्दी नहीं अच्छी अंग्रेजी चाहिए।’

मैं अवाक्। सन्न। हतप्रभ। मेरी ज़िन्दगी का पहला साक्षात्कार और मेरी ज़बान
ख़ारिज। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के प्रयोजनमूलक हिन्दी पत्रकारिता के
कनिष्ठ शोध अध्येता को उस वक्त घुमरी आ रही थी। विश्वविद्यालय अनुदान
आयोग द्वारा जारी ‘जनसंचार एवं पत्रकारिता’ विषय में नेट और जेआरएफ दोनों
सटिर्फिकेट उस घड़ी मुझे चिढ़ा रहे थे। यही नहीं मैं हताशा से उन
पत्र-पत्रिकाओं को उलट-पुलट रहा था जिसमें मैंने अपनी पूरी ज़िन्दगी खपा
दी थी। जैसे-मीडिया विमर्श, संवेद, सबलोग, समकालीन जनमत, समकालीन तीसरी
दुनिया, परिकथा, अक्षर-पर्व, कादम्बिनी, प्रभात ख़बर। संयोगवश पत्रिकाओं
की इस झुण्ड में एक पत्रिका वह भी थी जिसका सम्पादक आप स्वयं
हैं-‘कादम्बिनी’। मेरा लिखा जो आपने प्रकाशित किया था-‘प्रेमचन्द के गाँव
लमही से लौटते हुए।’

वह दिन, और आज का दिन। मुझे अपनी भाषा में तिल-तिल मरना साबित हुआ है।
उसके बाद इस वर्ष दूसरा साक्षात्कार देने सिक्किम विश्वविद्यालय जाना
हुआ। विश्व के 200 मास-मीडिया फैक्लटी जिसमें दुर्भाग्यवश एक भी भारत के
नहीं हैं; में से मैंने एक 25 पृष्ठीय पाठ्यक्रम को भी इस साक्षात्कार के
लिए तैयार किया था। इसके अतिरिक्त भी ढेरों सामग्रियाँ जिन्हें मैंने
करीब 16-16 घंटे जगकर बनाया था। वहाँ भी अंग्रेजी में पढ़ाने की
अनिवार्यता पर मैंने ‘एक्सपर्टों’ को चैलेंज कर दिया-‘यदि मैं अंग्रेजी
में जवाब दे रहा होता, तो आप मुझसे क्या सवाल पूछते?’ उन्हें नाग़वार
गुजरा था। धुँआधार प्रश्नों के बीच साक्षात्कार जब खत्म हुआ; वे अपने हाथ
खड़े कर चुके थे। राॅबिन जेफ्री, फा्रंचिस्का आॅरशेनी, हैबरमास, नाॅम
चामस्की इत्यादि को हिन्दीभाषी पत्रकारिता के विद्यार्थी भी जानते-समझते
हैं और उस पर धाराप्रवाह बोल सकने का सामथ्र्य रखते हैं; यह पूर्वानुमान
वे नहीं लगा सके थे। मेरी भाषा उस कक्ष से विजित होकर निकली थी; लेकिन,
मेरा चयन वहाँ भी नहीं किया जा सका। जबकि उस जगह सिर्फ हम तीन ही लोग थे।
पिछले महने जुलाई में राजस्थान के वनस्थली पीठ में साक्षात्कार हेतु जाना
हुआ; और मैं एक बार फिर अपनी भाषा में मरते हुए वापिस हुआ।(संलग्नक
देखें)

आदरणीय शशि शेखर जी, ऐसे आते हैं हम आशंकाशास्त्रियों के झांसे में। आपने
जिस भाषा में अपने भाव लिखे हैं न! वे आज मेरे हैं-‘‘उन दिनों मैं खुद को
छला हुआ महसूस करता था......’

खैर! आपका सम्पादकीय पढ़ा। आपने मनोयोग से हिन्दी भाषा के बारे में
सकारात्मक सोच रखने की बात कही है; इसके लिए आपको साधुवाद!
सादर,

भवदीय
राजीव रंजन प्रसाद
वरिष्ठ शोध अध्येता(जनसंचार एवं पत्रकारिता)
प्रयोजनमूलक हिन्दी पत्रकारिता,
हिन्दी विभाग
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय
वाराणसी-221 005

Saturday, September 13, 2014

इस बार का ‘सर्वेक्षण’

जन-सम्पर्क और जन-सम्वाद स्थापित करने में युवा राजनीतिज्ञों की भूमिका

युवा राजनीतिज्ञ : जन-साधारण की दृष्टि में व्यक्तित्व, व्यवहार और नेतृत्व
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नोट: सुझाव आमंत्रित(प्रयोगात्मक संस्करण)



Friday, September 12, 2014

हिन्दी दिवस की पूर्व-संध्या पर एक दरख़्वास्त


Dear Sir/Ma'am

I'm qualify Master Degree in Functional Hindi Journalism with minimum
70% Marks & first position in overall class; But not have English as
one of the Subjects in Graduation.

Yes, It is true that Our Master Degree Course plan are functioning in
the large functioning areas as a innovative and conversing task-work
as a golden rule of current ICT & Global Leadership Program.

So, I want to request that please consider my application Form with
above mention remarks, in case I send it through proper channel.
Please reply as soon as.
with regards,

yours
Rajeev Ranjan Prasad
Senior Research Fellow
(Mass Communication & Journalism)
Functional Hindi Journalism
Department of Hindi
Banaras Hindu University
Varanasi-221 005

Request :BY WHOM TO CONCERN_In the Subject of advertised post for recruitment 'Officer(Official Language)'

 

Rajeev Ranjan

Sat, Sep 13, 2014 at 11:45 AM
To: career@gail.co.in



Thursday, September 11, 2014

हाय! रिसर्च

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‘फुटानी बहुत करते हैं....काम कम.....’
उसने कहा था। मेरी निगाहें टीवी स्क्रीन पर दिखते बाढ़ पर टिकी थी।

‘मैंने कहा था न....आटा ख़त्म हो गया है, लौटते समय ले आइएगा।’

मैं बाढ़ में फंसे हुए लाखों लोगों की चीख-चिल्लाहट सुन रहा था। मेहरारू बोलती रही और मैं आदतन उसे अनसुना करने का भूगोल रचने में मशगूल हो गया।

उसने इस बार झकझोर कर कहा-‘आटा नहीं और कल बाबू लोग को टिफिन बनाकर भेजना होगा.....’

‘चावल है न!’ मैंने संत-भाव से कहा था।

वह तमतमाई हुई किचेन में घुसी थी। उसके पायल की आवाज़ कर्कश हो ली थी। लेकिन मैं टेलीविज़न पर सेना की बहादुरी के सुनाये जा रहे किस्से सुनने में अलमस्त था।

यह क्या....? अगले ही पल उसने चावल के झोले मेरे पर उझील दिया था। 

मैं सन्न, अवाक्।

अगले पल गुस्सा में उठा। और बाहर चला गया। मैं साईकिल इतनी तेज चला रहा था कि एक किलोमीटर के भीतर तीन बार चेन उतर गए। किराना के दुकान पर गया, चावल की मांग की। लेकिनए जेब खाली है। यह अहसास काफी बाद में हुआ। निकला 5 रुपया। एटीएम की ओर भागा। पैसा नहीं निकला। बैलेंस तीन सौ तिरानवे रुपए।

मुझे क्रोध इतना कि लगा जैसे एक वरिष्ठ शोध अध्येता की जबर्दस्त तौहिनी हो गई है। उस बचे 5 रुपए से एटीएम रसीद का स्कैन करा लिया कि आज इसे अपने विश्वविद्यालय के वाइस-चांसलर को भेजूंगा। बिल भेजे  40 दिन से अधिक हो गये; और अभी तक यह तमाशा!!

यह सच है कि कुछ दिनों बाद अकाउंट में चालीस हजार रुपए लगभग होंगे। लेकिन आज आटे-चावल खरीदने के लाले पड़े हैं। मुआ एटीएम सौ का नोट देता ही नहीं है। हाय!

मैंने किसी तरह तकादे के लोगों को मना लिया कुछ दिनों के लिए। पेट पर आफ़त है, इसे कैसे मनाये?

भारी मन से घर लौटा, तो उकडू बने बैठा रहा। उसे दया आ गई। गुस्सा के बावजूद पचास का नोट निकालकर मेरे सामने रखे पुस्तक पर रख दी जिसका नाम था-‘अथातो सौन्दर्यजिज्ञासा!’

मैं उस किताब के पन्नों की तरह अपने आदत-स्वभाव के पुरानेपन से जूझ रहा था।

अगले पल एक सूची बनाई जिमें यह जिक्र था कि किससे कितना पैसा लेना है और किसको कितना देना है। मात्र देने को साढ़े ग्यारह हजार रुपए निकले। नाम था-सर जी: छह हजार, कृष्ण: पांच हजार, मोतीलाल जी: 500 रुपए।’

लेकिन मुझे जिनसे लेना था वह तो डेढ़ लाख रुपए हैं। अब मैं नाम बताकर अपनी मेहरारू से अपना कचूमर नहीं निकलवा सकता। यह एक ऐसा सच है जिसे वह पसंद नहीं करती क्योंकि मेरे इसी व्यवहार से वह हमेशा तकलीफ़ से जूझती है; बूरी तरह। लेकिन, मैं तो पैसा आते ही बौराता रहता हूं। वैसे फ़िजूलखर्ची एक चाय को छोड़कर रुपल्ली भी फ़ालतू नहीं हैं। मेहरारू तो मुझसे भी बीस है इस मामले में।

अचानक फोन की घंटी बजी। बोलने वाले हमारे सीनियर थे। हिन्दी साहित्य से उन्होंने सिनेमा पर पीएच.डी कर रखा है। उन्होंने सुनाया कि वे एक विश्वविद्यालय में सहायक प्राध्यापक के पद पर नियुक्त हुए हैं। उसी विश्वविद्यालय में जहां के वाइस-चांसलर ने कहा था कि-‘हिन्दी पत्रकारिता की आपकी योग्यता हिन्दीपट्टी के राज्यों के लिए उपयुक्त है....हमारे यहां तो बस अंग्रेजी में ही मास-काॅम है।’ खैर!

उनको एक समस्या साझा करने थी-‘अरे! मित्र मैं आपको ही याद कर रहा था....यहां इन्होंने मुझे एक जनसंचार और पत्रकारिता का पेपर लगा दिया है पढ़ाने को; और आप तो जानते ही हैं कि मुझे पत्रकारिता का उस तरह ज्ञान नहीं है कि पढ़ाया जा सके। आप मेरी मदद करें।’

उस समय मुझे काटो तो खून नहीं। पूर्वोत्तर के इस केन्द्रीय विश्वविद्यालय के वाइस-चांसलर का चेहरा मेरे दिमाग में घूम गया। लगा कि इतना बुजुर्ग और अनुभवी होकर भी लोग क्या-क्या ग़लत नहीं कर रहे हैं। उस साक्षात्कार के लिए मैंने अपनी जान लगा दी थी। करीब विश्व के 200 मास-मीडिया फैक्लटी का सिलेबस देख-ताक कर 25 पृष्ठ में एक वैकल्पिक पाठ्यक्रम का पूरा खाका मैंने तैयार किया था। लेकिन ढाक के वही तीन पात। परिणाम मेरे विपरीत।

यह सब सोचते हुए मैं वहीं ज़मीन पर पसर गया। एकबारगी अचकचा गया।

सारे अख़बार नदारद थे। कई साल की जमा-पूंजी है वह। कई आशंकाएं। भागा हुआ, सीमा के पास। बोली नहीं निकल रही थी।

‘बेच दी, अभी जो आपको पैसा दी उसी में का है। कुल साढे चार सौ दिए अख़बार वाले ने।’

ओह! जनसता, हिन्दुस्तान, सहारा हस्तक्षेप, जनसंदेश, जागरण्ण्ण्...हाय! रिसर्च....

ओह! मेरे लोगों...!!!


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नई सरकार प्राकृतिक आपदाओं के कारणों को भी सुने, तो बात बने
 
एहतियातन अपना बचाव हरसंभव मुस्तैदी से करना चाहिए। इस बार की आपदा संभवतः पिछली बार से अधिक त्रासदीजनक हो। पिछली रात भूकम्प के झटके मिले। यह अनायास नहीं, अपितु आगत संकट का पूर्व-संकेत है। गत वर्ष उतराखण्ड में जो कुछ घटित हुआ; यदि वह सब हमें याद है। हमने बेहतर प्रबंधन और बचाव के विकल्प चुन रखे हैं या कि उसके इंतजमात को ले कर आश्वस्त हैं, तो डरने की आवश्यकता नहीं है। लेकिन, अब हमें भविष्य में ऐसी घटनाओं से हमेशा दो-चार होने की आदत डाल लेनी होगी।
Posted by
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आप मेरी किसी बात पर भरोसा करें, जरूरी नहीं है। लेकिन, अपने विवेक का इस्तेमाल तो जरूरी है। मैं कहूं कि कल इमारत धसेंगे और हम सब ज़मीन के भीतर समा जाएंगे। आप कहेंगे, बड़े आए भविष्यवाणी करने वाले। लेकिन यह सच है। हमारे विनाश में सिर्फ पांच ही चीज शामिल होंगे-‘क्षिति, जल, पावक, गगन और समीर’। यह सब जब होगा आपकी ‘अच्छे दिन’ लाने वाली सरकार(पिछली सरकार निकम्मी थी यह बताने की जरूरत नहीं है) टुकुर-टुकुर देखती रहेगी या चिल्लाएगी: ‘आपदा राहत...आपदा प्रबंधन.... आपदा कोष....’।

शीर्षकहीन : He is no more!



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हे राम!
मैं फिर लौटूंगा
बार-बार लौटना चाहूँगा
उसी चोले में
जिस चोले में जिया कई बरऽस

हे राम!
मेरे ज़बान का दूध
पूरी तरह नहीं निचुड़ा है
‘शब्दों’ और ‘अर्थों’ से
भाषा का थान पिरा रहा है
अतः मैं फिर लौटूंगा
बार-बार लौटना चाहूँगा
उसी चोले में
जिस चोले में जिया कई बरऽस

Wednesday, September 10, 2014

सभ्यता-संस्कृति के नए दावेदार


असहमतियां आमंत्रित
rajeev5march@gmail.com
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सभ्यता-संस्कृति के नाम पर अपने ज्ञान की ‘चुरकी’ हिलाने वाले सबकुछ जानने का दावा करते हैं; और ढोंग उससे भी अधिक। वे यह भविष्यवाणी करते हैं कि ईश्वर का अंत हो गया और ईश्वर के होने के इतिहास का भी खा़त्मा हो गया है। 

इनके ‘इम्बेडेड रिसर्च’ के मुताबिक शेष बची हैं सिर्फ साम्राज्यवादी शक्तियाँ जिसके पास सत्ता-शक्ति का समूचा नियंत्रण है; सैन्य ताकते हैं और सर्वाधिक मात्रा में हस्तमुक्त फैला वह बाज़ार-तंत्र है जो उन्नत तकनीकी-प्रौद्योगिकी के माध्यम से लगातार (ड्रोन)सांस्कृतिक हमले कर रही है। पारिभाषिक भाषा की पहेलीदार परतों में यह भी बताया जा रहा है कि ज़िन्दा होने की अब पहली और आखि़री शर्त उपभोक्ता होना है। ख़बरचियों की चिल्लाहट मंे बयां होते नारों की बात करें तो उनके हवाले एक ही बात बार-बार दुहरायी जा रही है-‘देयर इज नो अल्टरनेटिव’। अमेरिकी उद्योगपति ने अपने समय को विशेष तरज़ीह देने के लिए कहा था-‘इतिहास थोथी बकवास है।’ आज हम इसी मुहावरे के उलटफेर में फँसे हैं। इतिहास के इसी नकार का दुष्परिणाम है कि आज हम अपनी परम्परा, विरासत, सभ्यता और संस्कृति से पूर्णतया कटे हुए दिख रहे हैं। इससे सम्बन्धित संज्ञान और स्मृति-बोध हमारे चेतन/अवचेतन से बाहर का विषय है। आधुनिक माध्यमों के ‘इनपुट’ में उनका आना शामिल नहीं है और भूल-चूक से आ गये, तो हम उनको हास्यास्पद बनाने से चुकते नहीं हैं। 

आज पूँजी पूजनीय है क्योंकि यह समय ‘टाइम कलरिंग’ का है। सभी अपने-अपने हिसाब से समय का इन्द्रधनुष गढ़-बना अथवा रच-बुन रहे हैं। सब बे-फुरसत हैं क्योंकि सामूहिकता से अधिक सुख उन्हें उस वैयक्तिकता में मिल रहा है जो उन्हें ग्लोबल होने के अहसास से भरता है। इंटरनेट का एक ‘क्लिक’ मनचाहे साथी अथवा विपरीतलिंगी के बेडरूम में होना दिखाता है। यह साइबर-संसार का अनोखा लुर-लछन है जिसमें 8 साल का बच्चा भी सहवास करते स्त्री-पुरुषों का अंग-प्रत्यंग देख सकता है; बिना आग-पीछे जाने समझे सिसकारियों की दुनिया में गोता लगा सकता है। अब श्लील होना मनुष्य के मोबाइल फोन पर ‘पोर्नोग्राफी का अपलोड होना है। इसी को हमारे ‘अपडेट’ और ‘स्किलस होल्डर’ होने का निशानी माना जा रहा है। अब यह दक्षता/प्रवीणता मोबाइल-परदे से सीधे हमारे दिमाग में आवाजाही कर रहा है। इस मुक्त-प्रवाह में कोई औपचारिकता-निभाने  का नैतिक दबाव नहीं है। अब तो स्थिति यह है कि आपके पड़ोस की आंटी कपड़ों में अस्त-व्यस्त दिखी नहीं कि आपने उनकी तस्वीर उतार ली; और अगले पल ‘वाट्स-अप’ के हवाले।

कहना न होगा कि फेसबुक ने हमारे युवा बर्ताव को अजूबे ढंग से बदला है। अब आप खुद को लाइक करना भूल रहे हैं क्योंकि आपका दिमागी गणित दूसरे का लाइक करने और अपने को लाइक किए जाने के फेरफार में उलझा है। आप गिनती में कुशल होना, जवाब देने में पटु होना,देखने में चिंकी होना, समझ में चम्पू होना मौजूदा समय में सही-सलामत होने का प्रमाण का प्रमाण मानने लगे हैं। अब तो  ‘रेप’ का भी शब्दार्थ बदल चुका है। दरअसल, ‘डिजीटल रेप’ का ‘प्रोनाग्राफिक प्रजेंटेशन’ इतना रोमांचक और रोचक है कि वास्तविक दुराचार/दुष्कर्म की घटनायें उनका ‘बबरी’ तक नहीं नवाती; सर झुकाने की तो बात ही जुदा है। आजकल इन सब दुश्वारियों के बीच सिविल सोसायटी का टंटा बुलन्द है। ये खाये-पिये-अघाये लोगों का सोसायटिन ज़मात है जो शहरी बक्सबंन्दों में रहते है। कथित रूप से सभ्य उत्तर आधुनिक(?) कहलाते/उभरते ऐसे अधिसंख्य लोगों के यहाँ शहरी बदमाशियाँ और उत्पात इतने घिनौने और बड़े स्तर पर जारी है कि उसका फलांश समाज के उन तबकों पर पड़ रहा है जो इन बदमाशियों और उत्पात को खुद करने के लिए आतुर अथवा कुंठित है। यह नीचे का वर्ग भी 'लेस्बीयन' होना चाहता है या फिर 'गे' गैंग में शामिल होने का सपना बुन रहा होता है। 

यह वह नई पीढ़ी है जिसकी किस्मत में फूटी कौड़ी नहीं है लेकिन बदलते ज़माने की हर वह ख़बर उसे नसीब है जिसे तकनीक और प्रौद्योगिकी ने सर्वसुलभ करा दिया है। यह आकास्मात नहीं हुआ है। इसे सोची-समझी रणनीति के तहत उच्च-शिक्षित(दुनिया को अब तक सबसे अधिक क्षति ऐसे ही तथकथित पुरोहितवादी लोगों से हुई है) लोगों ने ‘लांच’ किया है। वे देह के हर उस उभार को पूरे नंगापन के साथ बेचना चाहते हैं जिससे मनुष्य एक सांस्कृतिक मनुष्य न होकर उपभेक्ता हो जाये। वह उपभोगधर्मी चेतना के साथ नैतिक-आचरणों की धज्ज़ियां उड़ा दें। पारम्परिक मूल्यों की अवहेलना करके भी यदि वह अपनी इच्छापूर्ति कर लेता है, तो कोई बात नहीं। अब मनुष्य होने का अर्थ ही है सरोकारों से वंचित होना, सामाजिक अपेक्षाओं से दूर होना। अतः कठिनाई आज सिर्फ ख़ालिस मनुष्य होने-बने रहने में हैं..... 

Monday, September 8, 2014

जनभाषा का नीम-अर्क


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7 सितम्बर को छपे प्रभु जोशी के आलेख ‘चटकीली जुमलों की जादूगरी’ पर राजीव रंजन प्रसाद की जनसत्ता को प्रेषित त्वरित प्रतिक्रिया

हर लेखक समाज-द्रष्टा होता है। इस नाते यह अपेक्षित है कि वह उन मुद्दों
पर अवश्य लिखे जिसका सम्बन्ध बहुसंख्य जनता-जनार्दन के हक़-हकू़क,
जनाधिकार और जनाकांक्षा से जुड़ा हुआ है। लेकिन, सबसे बड़ी दिक्कतदारी 
आज के बौद्धिकजनों के साथ यह है कि वह घुमा-फिराकर 
अपनी अगली या नई पीढ़ी को कठघरे में खड़ा कर देते हैं। यह बिना बताये कि
 वह जिस नई पीढ़ी की आलोचना कर रहे है उसकी परम्परा, पृष्ठभूमि और संलग्नता 
के बारे में उनका खुद का ज्ञान, सम्पर्क, सम्वाद और प्रत्यक्षीकरण कैसा और कितना है?

जनाब! नई पीढ़ी में हम भी शामिल हैं जो सांस्कृतिक आरोपण के चालू फंडे को
‘बाॅयकाट’ करने की तमीज़ और साहस रखते हैं। हमारी सोच, चिन्तन, दृष्टि,
कल्पना और यहाँ तक की स्वप्न में भी अपनी भाषा को लेकर कहीं कोई
कुंठा/क्षोभ नहीं है। हम लगातार अपनी भाषा में परिष्कृत/आविष्कृत होने का
स्वभाव रच रहे हैं। हम यह साफतौर पर मानते हैं कि हर भाषा को अपूर्णीय
क्षति होती है जब उसके वाचिक-तलबगारों की ज़बान दोगली हो जाती है। भारतीय
परिक्षेत्र में ऐसी करतूताना हरक़तों को कौन और क्यों शह दे रहा है? इसका
वस्तुनिष्ठ मूल्यांकन-विश्लेषण आपको करना ही होगा। आपकी यह महती जवाबदेही
बनती है कि आप हमारी शब्दावली के भरोसे हमारी चेतना और संज्ञान-बोध को न
कोसे या कि उसे खरी-खोटी सुनायें। आपको यह चाहिए कि आप परम्परा के इतिहास
में यात्रा करते हुए वर्तमान में प्रकट हो; और यह सिद्ध कीजिए कि
मानव-कौशल अथवा मानव-ज्ञान का वास्तव में विकसनशील होना देश के
प्रधानमंत्री के बोलने-चालने से कभी तय/सिद्ध नहीं हुआ है। आप देश की
जनता को इस सचाई से भली-भांति अवगत कराइए कि अपनी माटी से गूँथी-सनी
जनभाषा(सिर्फ हिन्दी नहीं) का वास्तविक संचारक आम-अवाम है जो ख़ालिस
तालियाँ नहीं पीटता है; वह तो खुलेआम ताल ठोंकता है-‘मोको कहाँ सीकरी से
काम’। आपको यह भी नई पीढ़ी को बताना चाहिए कि भारत की जनता किसी राजा के
राग-दरबारियों या मनसबदारों के पीठ पर सवार होकर भविष्य की यात्रा तय
नहीं करती है; उसके लिए जनसंवेदना से सने/सम्पृक्त भाव-विचार-क्रिया और
ज्ञान चाहिए।

इस तरह लोगों को यह अहसास दिलाया जाना अत्यावश्यक है कि अंग्रेजी की
तरफ़दारी/तीमारदारी में चाहे जितने भी तर्क-विचार झोंक दें; भारतीय जनमानस
को हम वह हरग़िज नहीं दे सकते हैं जो वह ‘गणपति बप्पा मोरया’ कहते हुए
हासिल कर लेती है। विशेषतया हिन्दी भाषा अपनी मुहावरों-लोकोक्तियों में
प्रतिरोध का जो विधि-विधान रचती है; वह जादूगरी की भाषा में वाक्-कुशल उन
लोगों की भी जमकर ख़बर लेती है जो अपनी भाषा के लिए कथित तौर पर ‘रोडमैप’
तैयार करते नज़र आते हैं या फिर बेहतरीन ‘ब्लूप्रिंट’ होने का हवाला देते
हैं। दरअसल, यह जनता है जो सबकुछ न सही इतना तो अवश्य ही जानती है कि-इन
कथित जादूगरों के पास ‘न नौ मन तेल होगा और न राधा नाचेगी'। आइए, हम अपनी
ज़बान का तेल निचुड़ने से बचाएं और जनभाषा का नीम-अर्क पीते हुए अपनी तबीयत
तंदुरुस्त रखें। क्योंकि कल की तारीख में ये चटकीले जुमलों के जादूगर भी
हमारी भाषा के नेतृत्व में शामिल होंगे। आमीन!

Sunday, September 7, 2014

यह ज़िन्दा गली नहीं है


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माही का ई-मेल पढ़ा। खुशी के बादल गुदगुदा गए।

जिस लड़की के साथ मेरे ज़बान जवान हुए थे। बुदबुदाए।

‘‘बिल्कुल नहीं बदली....’’

अंतिम शब्द माही का नाम था, उसे मन ने कह लिया था। लेकिन, मुँह ने मुँह फेर लिया।
(आप कितने भी शाहंशाह दिल हों....प्रेमिका से बिछुड़न की आह सदा शेष रहती है)

उस घड़ी मैं घंटों अक्षर टुंगता रहा था। पर शब्द नहीं बन पा रहे थे। रिप्लाई न कर पाने की स्थिति में मैंने सिस्टम आॅफ कर दिया था। पर मेरे दिमाग का सिस्टम आॅन था। माही चमकदार खनक के साथ मानसिक दृश्यों में आवाजाही कर रही थी। स्मृतियों का प्लेयर चल रहा था।

‘‘यह सच है न! लड़कियाँ ब्याहने के लिए पैदा होती हैं, और लड़के कैरियर बनाने के लिए ज़वान होते हैं। मुझे देखकर आपसबों को क्या लगता है?’’

बी.सी.ए. की टाॅप रैंकर माही ने रैगिंग कर रहे सीनियरों से आँख मिलाते हुए दो-टूक कहा था। तालियाँ बजी थी जोरदार। उसके बैच में शामिल मुझ जैसा फंटुश तक समझ गया था। माही असाधारण लड़की है। लेकिन, मैं पूरी तरह ग़लत साबित हुआ था। माही एम.सी.ए. नहीं कर सकी थी। पिता ने उसकी शादी पक्की कर दी थी। उस लड़के से जो एम. सी. ए. का क...ख...ग भी नहीं जानता था। माही ने एकबार भी इंकार नहीं किया था।(अपने माता-पिता या अपने अभिभावक का सबसे अधिक कद्र आज भी लड़कियाँ ही करती(!)हैं।)

माही का पति बिजनेसमैन है। स्साला एकदम बोरिंग। हमेशा नफे-नुकसान की सोचने वाला। शादी के बाद भी माही से जिन दिनों बात होती थी। वह बताती थी-‘‘राकेश की सोच अज़ीब है, वह मानता है कि सयानी लड़कियों को लड़कों से दोस्ती नहीं करनी चाहिए; लड़कियाँ ख़राब हो जाती है।’’

‘‘ये सामान बेचने वाले हमेशा ख़राब-दुरुस्त और नफे-नुकसान की ही सोचते हैं...,’’

मैंने कहा। माही तुरंत फुलस्टाॅप लगा दी। विवाहित लड़कियाँ चाहे कितनी भी पढ़ी-लिखी हों अपने सुहाग(?)के बारे में ज्यादा खिंचाई बर्दाश्त नहीं कर सकती हैं। वैसे हम दोनों हँसे खूब थे।

अब तो उसकी हँसी सुने अरसा हो गया है। आज उसने ई-मेल किया है। वह भी यह बताने के लिए कि बच्ची हुई है...और स्वभाव में बिल्कुल मुझ पर गई है।

माही के बिल्कुल न बदल सकने वाली बात ऊपर के पैरे में मैंने इसीलिए कहा था।

‘‘ओए मंजनू के औलाद...सो गए,’’

‘बोल न कम्बख़्त, क्या मैं किसी को चैन से याद भी नहीं कर सकता...., दो मिनट!’’

‘‘खुद तो माही महरानी बन गई...अब माताश्री भी; मजे लो...।’’

पार्टनर जीवेश और मेरी खूब बनती थी। उसने मुझे माही पर एतबार करते हुए, उसके लिए अपना सबकुछ लुटाते हुए देखा था...अब उन्हीं आँखों से मुझे लूटते हुए भी देख रहा था।.....
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(कहानीकारों की ज़िन्दा कौमे हैं....अफ़सोस गलियां ज़िन्दा नहीं हैं.....खै़र! फिर कभी...)

Monday, September 1, 2014

Request and Appeal to Academics, Research, Training & Innovation Wing, CBSE(Calling Candidate by CBSE For the Examination as a Post of Assistant Professor & Assistant Director; Date : 31-08-2014)



Rajeev Ranjan

AttachmentFri, Aug 29, 2014 at 11:53 AM
To: recruitment


सम्बन्धित को सम्बोधित
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महोदय/महोदया,

Why not our Mother-Tongue HINDI(हिन्दी) works towards
evolving a learning process and environment, which empowers the future
citizens to become global leaders in the emerging knowledge society?
How and why not?

वर्तमान तकनीकी एवं प्रौद्योगिकी युग में विद्यालयी शिक्षा के
‘पैटर्न’/‘लेबल’/‘स्टाइल’ आदि में अपेक्षित बदलाव दृष्टिगोचर है; यह
सीबीएसई और एनसीईआरटी के सहभावयुक्त शुभेच्छा का द्योतक है जिसकी जितनी
भी सराहना की जाये वह कम है। आपसब की भलमनसाहत ही है कि आपने वर्तमान
शैक्षणिक-प्रणाली एवं शैक्षिक-वातावरण को लगातार व्यावहारिक एवं आनुभविक
बनाने पर जोर दिया है। आपके द्वारा प्रस्तावित अधिगम-पद्धति में
संज्ञान-बोध, चिन्तन, कल्पना, संवेदन, उत्तेजन, उद्दीपन, प्रत्यक्षीकरण,
संवाद, प्रोक्ति, प्रयुक्ति, माध्यम-चयन, सह-सम्बन्ध, सामूहिकता, नेतृत्व
इत्यादि का समावेशन इसी उत्कृष्टता और नवाचारयुक्त विद्यार्थी-केन्द्रित
शिक्षा का प्रमाण है। ठोस शब्दों में कहें, तो यह विद्यार्थियों को
सामाजिक प्राणी के प्राथमिक चरण से आध्यात्मिक मनुष्य बनाने तक की
सर्वांगीण विकास-यात्रा है। यथा: सामाजिक मनुष्य=> वैचारिक
मनुष्य=>राजनीतिक मनुष्य=> सांस्कृतिक मनुष्य=> आध्यात्मिक मनुष्य।

महोदय, इन सारी जरूरी कवायदों के बीच ‘भाषा और अभिव्यक्ति के प्रश्न’ को
जिस तरह हाशिए पर रखा जा रहा है; वह बेहद चिन्तनीय है। पाठ्यक्रम-आधारित
किसी भी शैक्षिक कार्यक्रम की सफलता का उत्तारदायित्व
अध्यापकों/प्राध्यापकों द्वारा चुने गए भाषा-माध्यम पर निर्भर करता है।
लेकिन, अपने यहाँ की शिक्षा-प्रणाली इस सन्दर्भ में हमेशा उपेक्षा-भाव
बरतती रही है। सप्रमाण कहूँ तो मैंने स्वयं अकादमिक नियुक्तियों में अपने
प्रति नियोक्ता को हेय-दृष्टि अपनाते देखा है; क्योंकि मैं हिन्दी भाषा
को अधिकाधिक वैज्ञानिक, तकनीकी एवं प्रौद्योगिकीयुक्त नवाचार/अभिसरण से
संयुक्त/सक्षम बनाने का पक्षधर हूँ।(संलग्नक देख सकते हैं)

महोदय, यदि गाँधीजी के आत्मबल के बारे में बच्चों को अंग्रेजी में पढ़ाना
सर्वोचित है, तो फिर हिन्दीभाषी क्षेत्र के बच्चों को उनकी हिन्दी में ही
लिखित पुस्तकों को पढ़ाने पर सम्प्रेषणीयता का संकट क्योंकर उत्पन्न हो
सकते हैं? मुझे हिन्दी की तीमारदारी नहीं करनी है; बल्कि मैं उन
विसंगतियों की ओर इशारा करना चाहता हूँ जो आज शिक्षा-जगत के लिए यक्ष
प्रश्न बना हुआ है।

मुझे आशा ही नहीं पूर्ण-विश्वास है कि आप एक महत्त्वपूर्ण शैक्षणिक-तंत्र
को विकसित/गठित किए जाने के क्रम में उपर्युक्त पहलूओं पर अवश्य ध्यान
देंगे और हमारी चिन्ता को इसमें शामिल कर हमारी मातृभाषा की गरिमा,
ज्ञानकोष और आध्यात्मिक चेतना को अक्षुण्णय बनाने में हरसंभव सहायता
प्रदान करेंगे।
सादर,

भवदीय
राजीव रंजन प्रसाद
वरिष्ठ शोध अध्येता(जनसंचार एवं पत्रकारिता)
प्रयोजनमूलक हिन्दी पत्रकारिता
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय
वाराणसी-221005
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इसी 31 अगस्त को परीक्षा दिल्ली केन्द्र पर आयोजित हुए। 
सारे वस्तुनिष्ठ प्रश्न अंग्रेजी में दिए गए थे।

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सांस्कृतिक क्रांति के अग्रदूत लोहिया
 (संस्कृति-समाज और भाषा के अन्तःसम्बन्धों की पड़ताल)
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समाजवादी विचारधारा के मूल-स्तंभ डाॅ0 राममनोहर लोहिया का जीवन श्रेष्ठ मानवीय मूल्यों एवं अनुपम योग्यता से पूरित था। भारतीय राजनीति में उनकी छवि एक ऐसी राजनेता की थी जो ठोस सामाजिक परिवर्तनों के प्रति समर्पित थे। वे महात्मा गाँधी की भाँति सर्वजनसुलभ थे।

 सप्तक्रांति सिद्धांत के जनक डाॅ0 राममनोहर लोहिया को आज भी लोग ‘जनतंत्र’, ‘न्याय’ और ‘समानता’ का सबसे बड़ा हिमायती मानते हैं। सन् 1942 में जब महात्मा गाँधी समेत अन्य नेताओं को बन्दी बना लिया गया तब प्रतिरोध की मशाल को राममनोहर लोहिया और उनके समानधर्मा साथियों ने प्रज्ज्वलित रखा। गाँधी के इस मानस पुत्र के विषय में गणेश मन्त्री का कथन है, ‘‘लोहिया गाँधी नहीं थे। वे किसी की अनुकृति हो भी नहीं सकते थे। गाँधी संत योद्धा थे। एक ऐसा संत जिसे युग की परिस्थितियों ने योद्धा बना दिया था। अथवा, फिर ऐसा योद्धा जो संघर्षों में तपते-तपते संत बन गया। किंतु, लोहिया बिना कुटी के हो कर भी संत नहीं थे। वे माक्र्स भी नहीं थे। माक्र्स ऋषि या द्रष्टा थे। 19वीं सदी के यूरोपीय वर्तमान की दहलीज पर खड़े, अतीत के व्याख्याकार और भविष्य के प्रवक्ता थे माक्र्स। लोहिया को भी माक्र्स की तरह इतिहास की अंतर्धारा, सभ्यताओं की उथल-पुथल को समझने में गहरी दिलचस्पी थी। लेकिन मनुष्य-इतिहास को किसी खास लौह-नियम या विचार-साँचे में जकड़कर देखने-रखने की उनकी कोई इच्छा नहीं रही। इसी कारण लोहिया अनेक नये विचारों के प्रतिपादक और व्याख्याता तो रहे, परंतु किसी एक बंद विचार-प्रणाली के निर्माता नहीं बने।’’
 
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के सेन्ट्रल हिन्दू स्कूल से ज्ञान, स्वतंत्रता और प्रतिरोध का पाठ प्रारंभ करने वाले लोहिया असाधारण प्रतिभाशाली युवक थे, लेकिन उनका व्यक्तित्व आन्तरिक अनुशासन को तो स्वीकार करता था, बाह्î दबाव को नहीं। उनके व्यक्तित्व के तीन मुख्य घटक थे-मानवीयता, विवेक-विक्षोभ और संकल्प। ये घुल-मिलकर मनुष्य की आन्तरिक शक्ति बन जाते हैं जो दूसरे मनुष्यों के सन्दर्भ में मानवीय करुणा को लोकमंगल तक विस्तार देते हैं। स्वयं के संदर्भ में इच्छा, चयन, संकल्प और क्रिया की अधिकतम संगति से डाॅ0 लोहिया ने अपने स्वतंत्र व्यक्तित्व के ताने-बाने बुने।
 
डाॅ0 लोहिया मातृभाषा हिन्दी की उन्नति के ही पक्षधर नहीं थे, बल्कि विभिन्न प्रांतों में व्यवहृत महत्त्वपूर्ण भाषाओं को राष्ट्रभाषा का दर्जा देने के पक्षधर थे। उनकी दृष्टि में पूर्व-पश्चिम-उत्तर बनाम दक्षिण जैसी कोई संकीर्ण अवधारणा नहीं थी। डाॅ0 लोहिया की संकल्पना को मूत्र्त रूप देते हुए उनके सहयोगी मित्रों ने हिन्दी की महत्त्वपूर्ण साहित्यिक पत्रिका ‘कल्पना’ हैदराबाद से प्रकाशित की। चर्चित विचारक-लेखक यू. आर. अनन्तमूर्ति एक संस्मरण में कहते हैं, ‘‘रामनोहर लोहिया ने मुझे कहा कि तुम कन्नड के लेखक हो और तुम्हंे कन्नड को सार्वजनिक जीवन में उपयोग के लिए प्रोत्साहन देना चाहिए। उनकी यह मान्यता थी कि शिक्षा के क्षेत्र में प्राथमिक से स्नातक तक की पढ़ाई मातृभाषा में होनी चाहिए....
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मन की देहरी पर भूमण्डलीकृत समाज और भाषा की दस्तक
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मानव-जीवन व्यवहार में प्रयुक्त भाषा मानसिक संधान एवं संघात का प्रतिफल है। यह यादृच्छिक ध्वनि.संकेतों की एक ऐसी संश्लिष्ट व्यवस्था है जिस पर किसी व्यक्ति का समस्त वाक्.व्यवहार निर्भर करता है। भाषिक स्फोट भाषा.अधिग्रहण तंत्र(Language acquisition device) के माध्यम से घटित होता है। अभिव्यक्ति के एक महत्त्वपूर्ण एवं सशक्त साधन के रूप में भाषा का महत्त्व अन्यतम है। भाषा उन समस्त कार्य.व्यापारों को अर्थपूर्ण अभिव्यक्ति प्रदान करती है जो प्रतीयमान अथवा दृश्यमान हैं। मानसिक धरातल पर उमगे संवेदनों, स्पंदनों, भावों और विचारों को ध्वनि रूपों या शब्द लहरियों(waves of word) में ढालने का कार्य संवेदी तंत्रिका-तंत्र के जिम्मे होता है जो भाषा की वास्तविक निर्मात्री है। अभिव्यक्त भाषा की भाव-प्रकृति अथवा चित्त-गति कैसी और किस प्रकार की होगी? यह निर्धारण संचारक के मस्तिष्क से प्राप्त निर्देशों के आधार पर ज्ञानेन्द्रियाँ करती हैं। इस अंतःकार्य को सम्पादित करने में मानसिक सम्प्रत्यय, संज्ञानात्मक-बोध, प्रत्यक्षीकरण, अवधान, अधिगम इत्यादि की भूमिका सर्वोपरि मानी गई है। यह एक विशिष्ट प्रक्रम है जिसके सामाजिक अवदान को आधुनिक समाजभाषाविज्ञानियों एवं मनोभाषाविज्ञानियों ने स्वीकार किया है। उन्होंने भाषा के मानसिक व्युत्पति और व्यावहारिक अनुप्रयोग सम्बन्धी अनेकानेक निष्कर्ष प्राप्त किए हैं। उदाहरणार्थ-संकेतग्रह, बिम्ब-निर्माण, शब्दार्थ सम्बन्ध, अर्थविज्ञान, प्रोक्ति, अनुप्रयुक्त संचार इत्यादि.....

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हँसों, हँसो, जल्दी हँसो!

--- (मैं एक लिक्खाड़ आदमी हूँ, मेरी बात में आने से पहले अपनी विवेक-बुद्धि का प्रयोग अवश्य कर लें!-राजीव) एक अध्यापक हूँ। श्रम शब्द पर वि...