Saturday, August 18, 2012

जन-शोध का नव-स्तम्भ 'जन मीडिया/मास मीडिया'


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वर्तमान में दुनिया वेब-जगत के घेरे में है। जरूरी जानकारियाँ,
महत्त्वपूर्ण सूचनाएँ और घटनाओं के त्वरित सन्देश तेजी से भौगोलिक सीमाओं
का अतिक्रमण कर रहे हैं। आज वेबपसंदी लोगों का अन्र्तजाल से याराना है।
टेक्सट, इमेज, ग्राफिक्स, एनिमेशन, आॅडियो, विडियो इत्यादि के साथ रोज का
उठना-बैठना है। समाचारपत्र और टेलीविज़न चैनल भी इसी होड़ में शामिल हैं।
उनका या तो नेट-संस्करण उपलब्ध है या फिर इसकी तैयारी में वे जीजान से
जुटे हैं। इस अहम बदलाव के बीच कुछ ऐसे जरूरी सवाल हैं जिनसे हमारा
समय-समाज सीधे मुठभेड़ करना नहीं चाहता है। टिककर सोचना उसकी भाषा में
समय की फिजूलखर्ची है। इसीलिए आज की वैचारिकी में सघनता और सुघड़ता नहीं
है सिवाए लिपापोती के। सामयिक पड़ताल और मूल्यांकन सूचनाक्रांत और सतही
हैं; किन्तु उनमें अन्तर्वस्तु विश्लेषण का वो दमखम नहीं है जिसका हम और
हमारा समाज दस्तावेजीकरण कर सके; आने वाली पीढ़ी के लिए
संरक्षित-सुरक्षित रख सके। जनपक्षधर मुद्दों का अवलम्बन न होने से
मीडिया-शोध की स्थिति उत्तरोत्तर चैपट हुई हैं। इस क्षेत्र में निजी या
संस्थागत(विशेषकर काॅरपोरेट मीडिया द्वारा) तौर पर जो शोध या जरूरी
अनुसन्धान हो रहे हैं या होते दिख रहे हैं; उनमें सामाजिक-सांस्कृतिक और
राजनीतिक समझ का अभाव है। वहीं अकादमिक परिसर में मीडिया-शोध को लेकर जो
चिन्ताएँ या फिर विषय-प्रारूप के हिसाब से प्राक्कल्पनाएँ हैं उनका अपने
विषय और सन्दर्भ से ही कटिस है। आँकड़ेबाजी और फाॅमूलेबाजी की इस परिपाटी
का सबसे दयनीय पहलू यह है कि इन अकादमिक कवायदों का मुख्य उद्देश्य
उच्च-शिक्षा के लिए तमगा हासिल करना है। लिहाजा, विद्यार्थियों का
अच्छा-खासा हुजूम इस क्षेत्र में अनुसन्धान करने को लेकर लालायित और
उत्साहित तो है; लेकिन इन अकादमिक संस्थानों का जो मौजूदा माहौल है या कि
गंभीर शोध को ले कर जो बहस-मुबाहिसे हैं उनकी कनपटी में शाब्दिक
बौद्धिकता की गूंजे सर्वाधिक है; सटीकता और वस्तुपरकता का यथातथ्य
विश्लेषण-विवेचन नाममात्र। अतः भारतीय विश्वविद्यालय के विभिन्न मीडिया
संस्थानों में हो रहे अधिसंख्य शोध के शीर्षक जितने व्यापक हैं, उनसे
कहीं ज्यादा विशाल और बेजोड़ वे जुगाड़ हैं जो इन अनुसन्धानों के
चतुराईपूर्वक निपटान के लिए सदैव आश्वस्त करते हैं।

इसी बेचैनी और बेकली ने जाने-माने पत्रकार अनिल चमडि़या को ‘जन मीडिया’
और ‘मास मीडिया’ नामक दो पत्रिकाओं के संपादन एवं प्रकाशन के लिए प्रेरित
किया है। ‘जन मीडिया’ हिन्दी में प्रकाशित है जबकि ‘मास मीडिया’ अंग्रेजी
में। लेकिन दोनों एक-दूसरे का अनुवाद नहीं है। हालाँकि विषयवस्तु की
प्रासंगिकता और प्राथमिकता के मद्देनज़र दोनों में पारस्परिक लेन-देन के
लिए असीमित ‘स्पेस’ है। कहना न होगा कि अनिल चमडि़या के इस पहलकदमी की
मीडिया समाज के बाहर और भीतर जोरदार सराहना हुई है। स्वागत जबर्दस्त।
लेकिन यह राह आसान नहीं है। अपने सीमित संसाधनों के बदौलत ऐसी पत्रिकाओं
के प्रकाशन का जोखि़म जो विशुद्ध रूप से समाज और शोध को समर्पित हो;
चुनौतियों के दायरे को चैतरफा बढ़ा देता है, घटोतरी का तो कोई सवाल ही
नहीं उठता। वैसे कठिनतम समय में जब सबकुछ निजीकरण के कगार पर है और
सामाजिक-सांस्कृतिक पूँजी आयातीत पूँजीतंत्र के निशाने पर है;
प्रभावमुक्त और स्वतंत्र-शोध के बारे में सोचना अतिरिक्त योग्यता,
दृढ़निश्चय और संकल्पित आत्मबल की मांग करता है।  अनिल चमडि़या इस बात से
भिज्ञ हैं। वे पत्रिका के प्रवेशांक(अप्रैल 2012) में सम्पादकीय के
अन्तर्गत स्पष्टतः कहते हैं-‘जिस समाज में शोध संस्कृति परजीवी है और
जहाँ विभिन्न तरह के प्रभाव में होने वाले अध्ययनों और शोधों को
मार्गदर्शक मान लेने की प्रवृत्ति हो उस समाज में स्वतंत्र शोध संस्कृति
के लिए काम करना एक बड़ी चुनौती है। हम संचार के क्षेत्र में जन मीडिया
और मास मीडिया के जरिए अपने तरह का पहला प्रयास कर रहे हैं, जिसके जरिए
संचार के क्षेत्र में प्रभावमुक्त और स्वतंत्र शोध को सम्मानित करना
चाहते हैं। हम अपनी भाषा में यह भरोसा पैदा करना चाहते हैं कि
प्रभावमुक्त और समाज के हित में शोध का माध्यम, अपनी भाषा ही हो सकती है।
वह अपनी भाषा अंग्रेजी के साथ तमाम भारतीय भाषाएँ हो सकती है।’’

जनमीडिया और मास मीडिया का अभी तक प्रकाशित कुल जमा चार अंक सम्पादक के
इसी विचारसरणी का प्रतिफलन है। यों तो सम्पादक ने इन पत्रिकाओं पर तत्काल
अपनी धारणा बनाने की प्रवृत्ति से बचने का आग्रह किया है। किन्तु पत्रिका
के विषय-सामग्री से गुजरते हुए हम बेहद इतमिनान होते हैं कि सचमुच यह
हमारा समाज और हमारा शोध है। साथ ही, इसकी परिव्याप्ति क्षेत्रीय और
राष्ट्रीय सीमाओं से परे अन्तरराष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य तक है।
अन्तरराष्ट्रीय मीडिया स्तंभ के अन्तर्गत भारत से इतर अन्य देशों के
मीडिया के बारे में जो गहन और गवेषणात्मक विषलेश्ण दिए गए हैं वह एक
जरूरी वातायन है जिसके द्वारा हम अन्तरराष्ट्रीय मीडिया के चरित्र को
बखूबी देख-परख सकते हैं। प्रायः हमारी सोच एवं दृष्टि अपनी क्षेत्रियताओं
तथा राष्ट्रियताओं से बंधी होती है जिस कारण इससे बाहर के विषयों,
मुद्दों एवं विविध घटनाक्रमों से या तो हम अनजान होते हैं या फिर इस बारे
में ढुलमूल रवैया अपनाने को बाध्य होते हैं। नत्थी पत्रकारिता के हालिया
दौर में जहाँ ‘फ्री फ्लो कम्युनिकेशन’ एक भुलावा अर्थात झाँसा है। यह
स्तंभ इस मनोवृत्ति का आवश्यक पटाक्षेप है। पत्रिका में शोध और जन शोध
नामक दो खण्ड सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है। ये शोध जरूरी सवालों से मुठभेड़
करते हैं। चूँकि किसी अनुसन्धान की जरूरी कसौटी उसकी वैज्ञानिकता,
तार्किकता, तथ्यों की सत्यापनशीलता और कथन के नवीनतम पक्षों के बीच का
कार्य-कारण-सम्बन्ध है। अतः इस खण्ड में सहज-सरल भाषिक बनाव-रचाव के बीच
अनुसन्धान के तमाम निकषों के अनुपालन की प्रवृत्ति साफ दिखती है।

इसी प्रकार दस्तावेज स्तंभ हमारे देश-काल-परिवेश का आईना है जिसमें हमारे
संचार-समाज की विडम्बनाओं, विद्रूपताओं और विरोधाभासों को पतित-स्खलित
होते हुए आसानी से देखा जा सकता है। सर्वे खण्ड के अन्तर्गत उस जरूरी
पड़ताल को लक्ष्य किया गया है जिसके निष्कर्ष हमें चैंकाने या विस्मित
करने की बजाय उस यथास्थिति से अवगत कराते हैं; जिस बारे में प्रायः
सामान्य और विवेकीजन मुगालता पालने को अभिशप्त हैं। हर किस्म के विभ्रम
और मिथकीय अवधारणा पर सीधे चोट करते इन सर्वेक्षणों का एकमात्र उद्देश्य
अपनी उस परिकल्पना को साकार करना है जिसकी वजह से माध्यम-शोध में नानाविध
विसंगतियाँ हैं और इसे दुरुस्त किए बगैर शोध की दुनिया में आमूल बदलाव
सम्भव ही नहीं है। संभावना की तलाश में पत्रिका के सम्पादक अनिल चमडि़या
योग्य तथा कर्मठ युवाओं से संवादधर्मी ताल्लुकात रखने की दिशा में एक
जरूरी पहलकदमी करते दिखाई पड़ते हैं-‘‘विश्वविद्यालयों व उससे बाहर एक
ऐसी युवा-ऊर्जा है जो अपने समाज को बदलने के लिए शोध की दुनिया में
क्रान्तिकारी बदलाव ला सकती है। हम यह महसूस करते हैं कि उनके पास
दिशा-निर्देश का अभाव है। हमने इसी उद्देश्य से सेमिनार आयोजित करने का
निर्णय लिया है। सेमिनार में भागीदारी के लिए पर्चे आमंत्रित हैं। यह
सेमिनार मीडिया स्टडिज ग्रुप द्वारा आयोजित किया जाएगा।....सम्प्रेषण के
क्षेत्र में मीडिया विमर्श से जुड़ी नई पुरानी सामग्री के बीच हम अपने
चिन्तन और अध्ययनों की गति को तेज कर सकें। देश की विविधता, देश के
पास-पड़ोस की विविधताओं के बीच हमें यह विकास करना है।’’

बेहतर समाज की निर्मिति में जुटीं ये दोनों पत्रिकाएँ आगे क्याकर भूमिका
निभाएंगी, यह कहना तो जल्दबाजी होगा; लेकिन यह एक सचाई है कि पत्रिका-लोक
में जन मीडिया और मास मीडिया की उपस्थिति ने एक नई चुनौती को सिरजा है।
आज के व्यावसायिक युग में इन दोनों पत्रिकाओं के प्रकाशन को लेकर जैसी
धैर्यशीलता और सम्पादकीय पक्षधरता प्रदर्शित है वह अपनेआप में एक नवीन
परिघटना है; जन-शोध की दिशा में एक नव-स्तम्भ है। गोकि इसका उद्देश्य
क्षणकालिक विक्षोभ पैदा करने के विपरीत एक सुदीर्घ परम्परा को जन्म देना
है; ताकि हमारा समय, हमारा समाज और हमारा शोध निरन्तर सम्वेदित,
सम्वर्द्धित तथा स्पन्दित होता रहे।

1 comment:

Rahul Singh said...

पत्रिकाओं के अंक तलाश करते हैं.

हँसों, हँसो, जल्दी हँसो!

--- (मैं एक लिक्खाड़ आदमी हूँ, मेरी बात में आने से पहले अपनी विवेक-बुद्धि का प्रयोग अवश्य कर लें!-राजीव) एक अध्यापक हूँ। श्रम शब्द पर वि...