Sunday, September 4, 2011

सिनेमाई ज़मीन पर ‘फ़सल’ का सफल प्रदर्शन

कपोल-समीक्षा

बीते पखवाड़े रिलीज हुई फिल्म ‘फ़सल’ ने रिकार्डतोड़ लोकप्रियता हासिल की है। सिनेमाघरों और मल्टीकाम्पलेक्सों में फिल्म-टिकट को लेकर भारी गहमागहमी और हाउसफुल की स्थिति है। बेहद पेशेवर माने जाने वाले ख़बरिया-चैनल भी इस फिल्म को पूरी गंभीरता के साथ नोटिस ले रहे हैं। चौबीसों घंटे समाचार प्रसारित करने वाले इन निजी चैनलों पर घंटों चर्चाओं का दौर चल रहा है। हिन्दी मीडिया के साथ-साथ अंग्रेजी मीडिया ने भी इस फिल्म को ‘ऐतिहासिक फिल्म’ कहा है जिसने भारतीय किसानों की वास्तविक स्थिति और विडम्बना को हू-ब-हू सिनेमा के परदे पर उतारने का जोखिम उठाया है।

वहीं युवा निर्देशक राजीव रंजन जो अपनी इस पहली फिल्म के प्रदर्शन को लेकर बेहद चिन्तित थे; इस घड़ी निश्चिंत मुद्रा में अपनी फिल्म से जुड़ी ख़बरों को देख-सुन एवं गुन रहे हैं। बॉलीवुड-बाज़ार में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करने वाला मीडिल क्लास इस फिल्म को इस तरह सर आँखों पर बिठा लेगा; यह भरोसा खुद निर्देशक राजीव रंजन को नहीं था। हाई-प्रोफाइल जीवनशैली को परदे पर देख हर्षित-रोमांचित होने का आदी बन चुका मध्यवर्ग फिल्म ‘फसल’ को देखकर ऐसी अप्रत्याशित एवं त्वरित प्रतिक्रिया देगा; यह अपनेआप में जितना हैरतअंगेज है, उतना ही सुखद भी।

संगीत के धुन और गाने के बोल जो काफी पहले ही चर्चा में आ गए थे; दर्शकों को दिल से झूमाते हैं। इसमें ज़मीन से गहरा जुड़ाव है, तो आत्मीयता का थाप भी है जो किसानी-समाज के सत्व को प्रकट करता है। खासकर युवा कवि अनुज लुगुन के लिखे गीत ‘महुआई इस गंध में मैं रंग गई पिया संग’ ने दर्शकों के मन-दिल को सर्वाधिक छुआ है।

युवा पटकथाकार प्रमोद कुमार बर्णवाल लिखित पटकथा ‘फ़सल’ के बाबत निर्देशक राजीव रंजन विस्तार से बताते हुए कहते हैं-‘‘‘इन दिनों किसानों की दशा-दुर्दशा पर कुहराम थोकभाव मच रहे हैं, लेकिन उनकी बेहतरी के लिए उन समस्याओं का कोई समाधान नहीं निकाला जा रहा है जिनसे वे बुरी तरह पीड़ित और त्रस्त हैं। इस फिल्म की पटकथा इसी थीम पर आधारित है जिसका नायक एक मामूली पत्रकार है जो ग्रामीण पत्रकारिता करना चाहता है, और जिसका रोल-मॉडल पी0 साईनाथ हैं जो एक प्रतिष्ठित ग्रामीण पत्रकार हैं। आगामी भविष्य में किसी दिन उनसे मिलने का आस संजोये नायक गाँव-गाँव घूमता है। ग्रामीण लोगों से मिलता है, उनसे बातचीत करता है, उनका दुखड़ा सुनता है।

उसे ताज्जुब होता है कि गाँव के लोग तमाम विडम्बनाओं के बावजूद उत्सवधर्मी हैं। पर्व-त्योहार के मौकों पर उनमें आपसी मेल-बहोर तथा सौहार्द जबर्दस्त है। उल्लास का रंग है, तो सपनों का सजीला संसार भी। लेकिन अफसोस की नायक द्वारा भेजी गईं ख़बरें समाचार-पत्रों में स्थान कम पाती हैं या कभी-कभी उसे सीधे तौर पर ना तक कह दिया जाता है जिससे उसके भीतर नैराश्य भाव पैदा होने लगता है।

इसी बीच उसे एक नामीगिरामी मैग्ज़ीन की ओर से एक असाइनमेन्ट मिलता है। प्रख्यात साहित्यकार जिनकी जन्मभूमि तीर्थस्थल की भाँति पाठ्यक्रमों में दर्ज है; के ऊपर आवरण-कथा कवर करने को कहा जाता है जहाँ नायिका पहले से मौजूद है। वह वहाँ एक स्कूल खोलना चाहती है, लेकिन कई किस्म की अड़चने हैं जिसकी वजह से वह हाथ आगे नहीं बढ़ा पा रही है। लेकिन वह अपने सोच के प्रति इतनी दृढ़प्रतीज्ञ है कि वह अपने इस योजना को यों ही अधर में छोड़ लौटना भी नहीं चाहती है जबकि घरवालों का भारी दबाव है जो संभ्रान्त परिवार के लोग हैं, और नायिका का भाई खुद भी एक प्रतिष्ठित समाचार-पत्र का मालिक है। यहीं पर नायक और नायिका की आपसी मुलाकात होती है। मुफ़लिसी में दिन काट रहे नायक की नायिका मदद करना चाहती है जिसके लिए नायक राजी नहीं है।

संघर्ष करते नायक की ख़बरों को नायिका का भाई अपने पत्र में जगह देता है क्योंकि नायिका से उसके सम्पर्क और अपनापन धीरे-धीरे एकाकार होने लगे हैं। रिपोर्ट के माध्यम से गाँवों की ज़मीनी सचाई उजागर होते ही सफेदपोश और पूँजीपति घरानों में यकायक कुहराम मच जाता है और कहानी अपने हाई-एक्सट्रीम पर पहुँचती है जहाँ शोषण के औजार के रूप में भयानक व्यवस्था का वर्तमान चरित्र उभरकर सामने आता है। इस प्रकार कहानी देशकाल के चरित्र को सधे अन्दाज में पकड़ती हुई आगे बढ़ती है जो अंत तक जाते-जाते एक ऐसे विशाल वटवृक्ष का रूप धारण कर लेती है जिसके केन्द्र में आज का किसान और उसकी उजरती किसानी-दुनिया है। सवालों के घेरे में मौजूदा राजनीति है, समाज है, और साहित्य के ठिकाने और धर्म-संस्कृति के ठेकेदार हैं।

2 comments:

Rahul Singh said...

समीक्षा आ गई तो फिल्‍म भी आ ही जाएगी, हिट रहेगी, लग रहा है.
''संगीत के धुन और गाने के बोल जो काफी पहले ही चर्चा में आ गए थे; दर्शकों को दिल से झूमाते हैं। इसमें ज़मीन से गहरा जुड़ाव है, तो आत्मीयता का थाप भी है जो किसानी-समाज के सत्व को प्रकट करता है। खासकर युवा कवि अनुज लुगुन के लिखे गीत ‘महुआई इस गंध में मैं रंग गई पिया संग’ ने दर्शकों के मन-दिल को सर्वाधिक छुआ है।''
पैरा में लिंग की और अन्‍य स्‍थानों पर वर्तनी की भूल अखरती है.

Anonymous said...

film ka to pata nahi lekin film ke samichha ki saili bahut pasand aai....


chandrasenjit mishra

हँसों, हँसो, जल्दी हँसो!

--- (मैं एक लिक्खाड़ आदमी हूँ, मेरी बात में आने से पहले अपनी विवेक-बुद्धि का प्रयोग अवश्य कर लें!-राजीव) एक अध्यापक हूँ। श्रम शब्द पर वि...