Tuesday, November 30, 2010

मानव-संचार : मानव-मन की पटकथा


आधुनिक संचार-पद्धति द्वारा अर्जित सर्वोत्तम उपलब्धियाँ; एक ओर, मौलिक प्राकृतिक खोजों एवं मानवीय प्रयासों पर आधारित है जिस कारण यह अधिकाधिक विकसित स्वरूप ग्रहण करते हुए समाज पर सशक्त प्रभाव डाल रहा है। दूसरी ओर, संचारगत उपलब्धियाँ मनुष्य मात्र से जुड़ी हुई हैं। आज इसका प्रभाव सार्वजनिक जीवन के प्रायः सभी क्षेत्रों में दृष्टिगत है। संचार सम्बन्धी वैज्ञानिक चिंतन से प्राप्त ये तकनीकी उपलब्धियाँ मानवजाति के इतिहास की विभिन्न मंजिलों अथवा पड़ावों के यथार्थ चित्र प्रस्तुत करती हैं। मिस्र के पिरामिडों के निर्माताओं की तकनीकी क्षमता को, माया जाति की संस्कृति को हम सराहे बिना नहीं रह सकते हैं और इसी तरह हम पुरातात्त्विक खोजों से मिले सैंधव एवं हड़प्पा सभ्यता के साक्ष्यों या फिर प्राचीन यूनानी-रोमन इमारतों के मलबे को श्रद्धापूर्वक देख सकते हैं। यही नहीं पुराने ज़माने में प्रचलित धूप-घड़ी, दिशासूचक यंत्र, गुफाचित्र, भित्तिचित्र, शिलालेख, दूत, हकहारा आदि ऐसे सूचना-स्रोत हैं जो मानव सभ्यता के विभिन्न अंग-उपांगों का इतिहास-बोध कराते हैं।
निर्विवाद सत्य है कि समय की वेगवान उड़ान आधुनिक संचार-प्रक्रिया की अंतर्निहित शक्ति है। यह शक्ति ऐतिहासिक-सांस्कृतिक परिवर्तन का कालजयी सूचक व संकेत भी है। यदि विख्यात अमेरिकी संचार व समाजशास्त्री अल्विन टोफ्लर की मानें तो ‘‘मानवजाति के अस्तित्व का कालगत अन्तर्संम्बन्ध बेहद दिलचस्प है। उनके मुताबिक गत पचास हजार सालों को पीढ़ियों की संख्या से मापा जाए(जिनकी औसतन अवधि आज 62 वर्ष है), तो कुल जमा ऐसी पीढ़ियाँ लगभग 800 हैं। उनमें से प्रथम 650 पीढ़ियाँ गुफाओं में रहती थीं। केवल 70 पीढ़ियों के जीवन-काल मंे ही लिपि विद्यमान थी जो पारस्परिक सम्पर्क को संभव बनाने में सक्षम थे। सिर्फ छह पीढ़ियों को विद्युत-मोटर का ज्ञान था। आज अस्तित्वमान अधिकतर भौतिक तथा आत्मिक
मूल्यों की सर्जना वर्तमान पीढ़ी के जीवनकाल में हुई है।’’
इसमें दो मत नहीं है कि आज विज्ञान तथा तकनीक आधारित संचार की अन्योन्यक्रिया इतनी प्रगाढ़ और प्रबल है कि इसे आधुनिक सूचना-क्रांति की प्रक्रिया कहना समीचीन होगा। इलेत्रिक युग का प्रवक्ता कहे जाने वाले कनाडा मूल के प्रसिद्ध संचार समाजशास्त्री मार्शल मैकलुहान ‘संचार’ की अर्थगत विशेषता बताते हुए कहते हैं कि ‘‘संचार एक ऐसी प्रक्रिया है जिसके तहत संयुक्त कार्य और परस्पर समझ कायम होती है। यह सार्वजनिक जीवन के समस्त पक्षों-आर्थिक और राजनीतिक व्यवस्था, सामाजिक संरचना और संस्कृति-को निश्चित कर देता है।’’
इस संदर्भ में मैकलुहान संचार-साधनों का जो अर्थ लगाते हैं, वह बड़ा व्यापक है। सभ्यता के पूर्ववर्ती अवधि को मैकलुहान ने मानवजाति के ‘बचपन’ की अवधि एवं कबीली समाज का युग कहा है जिसके स्थान पर ध्वनिप्रधान लिपि का युग आकर हज़ारों वर्षों तक कायम रहा। वह युग ‘युवावस्था’ में मानवजाति के संक्रमण का द्योतक भी सिद्ध हुआ। अपनी भूमिका में विस्मरणीय गुतेनबर्ग द्वारा 15वीं सदी के मध्य में किये गए अविष्कार ने ‘द्वितीय युवास्था’ का सूत्रपात किया जो ध्वनिप्रधान लिपि के आधार पर स्थापित मुद्रण यंत्र के रूप में पहचाना गया। अंत में टेलीविज़न के अभ्युदय से मानवजाति ने विद्युत सभ्यता के युग में पदार्पण किया। सभ्यता की सतत् प्रगति में वर्तमान चरण को मार्शल मैकलुहान ने मानवजाति के ‘तृतीय युवावस्था’ की संज्ञा दी है।
ऐतिहासिक प्रगति में मनुष्य की भूमिका के सम्बन्ध मंे मैकलुहान का मत विचारणीय है। उनका मानना है कि ‘‘संचार-साधन अपने आप में सार्वजनिक संक्रियाओं को प्रभावित नहीं कर सकते हैं। उनकी परिवर्तनकामी क्षमता केवल तब प्रकट होती है जब वे व्यक्ति के इन्द्रियों के साथ जुड़े होते हैं। अतः संचार के समस्त कृत्रिम साधन मानव के अनुपूरक अंग हैं जो मानव के तत्सम्बन्धी अंगों के कार्य को उत्साहित अथवा प्रबलित ही नहीं करते, बल्कि उसके इर्द-गिर्द के परिवेश को भी बदल देते हैं।’’ यानी संचार-साधनों मंे हो रहे बदलाव समकालीन समाज को बुनियादी तौर पर नयी संस्कृति की उत्पत्ति की ओर ले जाते हैं और इस तरह सामंतवाद, समाजवाद, गाँधीवाद, मानववाद, साम्राज्यवाद या फिर नव-साम्राज्यवाद के बीच का स्वाभाविक भेद या अंतर लगभग मिट जाता है। इस तरह हम देख पाते हैं कि संचार के साधनों में तकनीकी नवीनताएँ सभ्यता की समग्र गति पर सार्वभौमिक एवं युगांतकारी छाप डालती हैं। संचार के मनोवैज्ञानिक पहलू पर विचारते हुए यह सदैव ध्यान में रखने योग्य है कि संचार-तकनीक का विकास विभिन्न सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक व्यवस्थाओं के अन्तर्गत होता है। वह केवल सामाजिक दृष्टि से तटस्थ नहीं है, बल्कि उनकी उन्नति सामाजिक, राजनीतिक तथा आर्थिक सम्बन्धों के प्रकार तथा स्वरूप से भी प्रभावित होती हैं।(जारी...)

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